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लिये जा रहा था ? कौन है मेरा ? मैं कहाँ से आया हूँ ? मुझे कहाँ जाना है? मैं किस पथ को छोड़ कर के जा रहा था, और फिर वे पुनः अपने पथ में स्थित हो जाते हैं । जब-जब व्यक्ति इस प्रकार से सोचता है, वह भावरूप से दिगम्बर दीक्षा से भ्रष्ट हो जाता है । चारित्र, नियम से भ्रष्ट हो जाता है। मोहक, ममत्व के जो परिणाम हैं, ममता के जो परिणाम हैं, ये ही आकिंचन्यता में बाधक होते हैं ।
भगवान राम ने जब जैनेश्वरी दीक्षा को ग्रहण किया और दिगम्बर होकर आत्मध्यान में लीन थे, सीता का जीव प्रतीन्द्र 16 व स्वर्ग से मुनि महाराज को विचलित करने के लिये आता है, बार-बार वो उसी प्रकार का रूप बनाता है, जैसा सीता का रूप था और बार-बार नाच-गान की बात करता है। बार-बार मोह व माया की बात करता है । लेकिन राम किंचित मात्र भी विचलित नहीं होते हैं । जिस सीता के कारण से राम वन-वन भटके, जंगल में कंदमूल और फल खाये, भूखे भी रहे, उपवास किये और वही सीता आज दिगम्बर मुनिराज के सामने खड़ी हुई है । ये दिगम्बर भेष कोई सामान्य भेष नहीं कहलाता है, वहाँ पर सीता, उनको नहीं लुभा पा रही थी, मोह जागृत नहीं हो रहा है। और उन्हीं राम का वह मोह देखो, जब वनवास के समय रावण सीता का हरण करके ले गया, तब राम वन-वन में पत्ते-पत्ते से पूछ रहे थे कि किसी ने मेरी सीता को देखा है ?
सीता के बारे में भी सोचो, जिस समय सीता की अग्नि परीक्षा ली गई, उस समय सीता का आत्मा में यह आकिंचन्य नाम का धर्म प्रकट हो गया। जब तक आत्मा में आकिंचन्य नाम का धर्म प्रकट नहीं होता, तब तक उसके लिये वैराग्य नहीं आता, वह दीक्षा को ग्रहण नहीं कर सकता है । पर जैसे ही अग्नि परीक्षा ली, उनके मन
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