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पहुँचे, गौर से देखा, फिर भी जब संतुष्टि नहीं हुई, तो हाथ से स्पर्श कर दिया। मिला क्या? वहाँ पर तो पीक पड़ी हुई थी । तब महाराज के लिये बोध हुआ । अहो कहाँ तो मैं इस दिगम्बर भेष में और कहाँ यह छोटा-सा ममत्व आ गया। महाराज के मन में विचार आया कि
राजपाट माया तजी, तजो पुरन का काज ।
तनक मोह के कारण, पड़ी पीक पर हाथ ||
राज तज दिया, पाट को तज दिया, और भी जो हमारे दोस्त - मित्र थे उनके साथ को हमने तज दिया, लेकिन मोह का हमने त्याग नहीं किया, मोह को हमने अपना माना, इस कारण से थोड़े-से मोह से हमारा हाथ कहाँ पहुँच गया, पीक के ऊपर ।
थोड़ा-सा भी राग, थोड़ा-सा भी मोह, अगर आपके ममत्व के परिणाम घर गृहस्थी से बने रहते हैं, तो समझ लेना आपके अन्दर आकिंचन्यता नहीं आ सकती है । इसलिये आकिंचन्यता का जो धर्म है, वो मुनि महाराजों के लिये बतलाया है कि वो सब कुछ घर बार छोड़कर के वन में पहुँच जाते हैं और वहाँ पर विचार करते हैं मेरा कुछ नहीं है, एक मात्र मेरी एकत्व विभक्त नाम की आत्मा है, इसके अलावा और मेरा कुछ नहीं है ।
राजा दशरथ मुनि बन कर के वन में बैठे हुये थे। किसी ने कहा कि आपके दोनों पुत्र बलभद्र और नारायण जंगल में वन-वन भटक रह हैं और सीता के लिये रावण हरण करके ले गया है । ऐसा सुनकर दशरथ के लिये थोड़ा मोह जागृत हो गया। थोड़ा-सा मोह जागृत हुआ, और सोचा कि मेरे होते हुये मेरे पुत्र इस प्रकार से दुःखित हों, चलो घर पर चलना चाहिये, और चलने के लिये तैयार हुये | फिर विचार करते हैं कि आ हो! मैं कहाँ जा रहा था, किसके
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