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नहीं है।
वास्तव
आत्मा का सबसे बड़ा शत्रु क्रोध है । यह आत्मा के गुणों का हनन करके चतुर्गति में भ्रमण कराने में सहायक है । क्रोध के वेग में बुद्धि कुण्ठित हो जाती है, वह हिताहित के ज्ञान से शून्य हो जाती है । क्रोधी तो आत्मीय जनों का भी लिहाज नहीं कर पाता, क्योंकि क्रोधी के हृदय से प्रेम की रसधारा सूख जाती है । क्रोध में पिता-पुत्र का, भाई-भाई का, गुरु-शिष्य का, मित्र - मित्र का भी शत्रु बन जाता है ।
बहुत समय से चलने वाला प्रेम भी क्रोध के कारण एक क्षण में ही घृणा में परिवर्तित हो जाता है । परिणाम यह होता है कि क्रोधी व्यक्ति अपने जीवन काल में तो निन्दा का पात्र होता ही है, मरणोपरान्त भी उसे घृणा की दृष्टि देखा जाता है । इसलिए अपने जीवन में कैसा भी क्रोध का निमित्त मिले, सन्त जैसे हो जाओ । सन्तों को बाहर से कितना भी क्रोध का निमित्त मिले, परन्तु वे क्रोध नहीं करते, क्योंकि वे जानते हैं कि
"क्रोध करना, स्वबोध खोना है । इसके बाद, रोना-ही- रोना है | इसलिए क्रोध छोड़ देना प्यार आत्मन् । क्रोध करना, कर्मों का बोझ ढोना है । । "
क्रोध करना, अपनी साधना व जिन्दगी का बरबाद करना है । सत्य साधक को कोई कितनी भी गालियाँ दे, अपमान करे, पर वे तो यही विचारते हैं, यह क्रोधी जिसे सुना रहा है, वह मैं नहीं हूँ और जो सुन रहा है, उससे इसका काई सम्बन्ध नहीं । आप भी क्रोधी के समक्ष अन्धे व बहरे का रोल अदा कीजिए । न उसकी बात सुनिये, न
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