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भी पैसे के लिये, सांसारिक सुख के लिये करते हो, लेकिन संसार में कोई भी आपको सम्पूर्ण सुखी नजर नहीं आयेगा ।
न सुखं चेन्द्रियाणां न किंचित सुखं चक्रवर्तीना । सुखं अस्ति निवृत्तिः मुनि एकान्त वासना । ।
अगर संसार में आप सोचेंगे कि इन्द्रियों में सुख है, तो इन्द्रियों के विषयों में आपको किंचित मात्र भी सुख नहीं मिल सकता है । आप सोचो कि चक्रवर्ती सुखी हैं, तो चक्रवर्ती के लिये भी सुख नाम की कोई चीज नहीं है। अगर सुख है, तो निर्वृत्ति के परिणाम में है । मुनि एकान्त वासना, जो दिगम्बर मुनि होते हैं, एकान्त में रहा करते हैं, एकान्त में धर्म ध्यान करते हैं और वहाँ पर जाकर के
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ऐसा विचार करने वाले दिगम्बर मुनिराज धन्य हैं। वैसे तो आकिंचन्य धर्म मुनिराज को ही प्रकट होता है, लेकिन एकदेश गृहस्थ भी इसका पालन किया करते हैं । आप विचार कर सकते हैं नारी को प्यार यथा, कादे में हम अमल है ।" गृहस्थ जो होता है, सगे संबंधियों से संबंध बनाता है, प्रेम करता है, राग करता है, मोह करता है । लेकिन जो वेश्या होती है, उस वेश्या का जो प्रेम होता है, वह दिखावटी होता है। इसी प्रकार से जो गृहस्थ सम्यग्दृष्टि होता है, जो आकिंचन्य धर्म को कुछ प्राप्त कर लेता है, वह भी सबसे प्रेम से बात करेगा, राग करेगा, लेकिन वेश्या के समान । वेश्या जैसे सारे गाँव के लोगों से प्रेम करती है, प्रेम की बातें करेगी, सब कुछ करेगी, लेकिन फिर भी वेश्या का प्रेम किसी के प्रति, सच्चा प्रेम नहीं होता है ।
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ऐसे ही सम्यग्यदृष्टि की पहचान होती है, उसका भी ऐसा ही प्रेम होता है । घरपरिवार में रहते हुये भी ऐसे ही एकत्व विभक्त नाम
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