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हो कि मैं मनुष्य हूँ, कुटुम्बी हूँ इत्यादि भाव हों, तो आकिंचन्य धर्म नहीं हो सकता | आकिंचन्य धर्म वहाँ प्रकट होता है, जहाँ यह समझ लिया जाय कि मरा तो मात्र चैतन्य स्वभाव है, यह बाह्य पदार्थ मेरे कुछ नहीं हैं। इस जगत के बन्धनों का त्याग करने पर ही, आकिंचन्य धर्म प्रगट होगा। बस, यही तो धोखा है कि हमने पर-पदार्थों को अपना मान रखा है, आचार्य कहते हैं, इतनी-सी बात मान लो कि कोई पदार्थ मेरे नहीं हैं, तो सब सुख तुम्हारे पास आ जायगा |
जिन तीर्थकारों की हम उपासना करत हैं, उन तीर्थंकारों ने इसी मार्ग का अनुशरण किया। निज-को-निज पर-को-पर जानो, ऐसा ही उन्होंने जाना और फिर सबको छोडकर रत्नत्रय की साधना की. जिसके परिणाम में वे परमात्मा बन और हम सब उनकी पूजा करते
मोक्ष जान का एक मात्र यही मार्ग है, अन्य नहीं। जब तक हम धन-धान्यादि बाह्य परिग्रह और क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अन्तरंग परिग्रह का त्याग नहीं करते, तब तक आकिंचन्य धर्म प्रकट नहीं हो सकता।
एक बार एक राजा साधु जी के पास पहुँचा और बोला-महाराज! मै आकिंचन्य की साधना सीखना चाहता हूँ | साधु जी बोले-पहले यह भीड़ घर छोड़कर आओ। वह सबको छोड़कर अकेला साधु जी के पास पहुँचा | परन्तु साधु जी फिर से बाले-अभी भी आपके पास बहुत भीड़ है। उसने देखा मैं तो अकेला हूँ | साधु जी बोले-अच्छा जाआ पहले तुम आश्रम में झाडू लगाने का काम करो | राजा का कुछ अच्छा नहीं लगा। वह मन में सोचता है-मैं राजा और महाराज ने मुझे झाडू लगाने का काम दिया, दना ही था तो कोई अच्छा-सा
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