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साथ कहता हूँ कि मेरे यहाँ डाका डालनेवाला यही है, यह सारा माल हमारा ही है ।
ऐसे कंजूसों की स्थिति बड़ी खराब होती है, वे न तो स्वयं ही सम्पत्ति का उपभोग करते हैं और न ही दूसरों को करने देते हैं । ऐसे कंजूसों को ही ध्यान में रखकर किसी नीतिकार ने व्यंग की भाषा में लिखा है
कृपणेन समो दाता न भूतो न भविष्यति । अस्पृशन्नेव वित्तानि यः परेभ्यः प्रयच्छति । ।
कंजूस से बड़ा कोई दूसरा दानी नहीं है । क्योंकि शेष दानी तो कुछ बचाकर दान करते हैं, किन्तु कंजूस तो बिना हाथ लगाये ही सारी सम्पदा दूसरों के लिए छोड़कर चला जाता है।
समाज में सभी तरह के लोग होते हैं । कुछ लोग धन-सम्पदा होने के बाद भी दान नहीं करते, पर कुछ ऐसे भी महापुरुष हो गये हैं जो गरीब होने के बाद भी महान दानी थे ।
संस्कृत के प्रसिद्ध कवि माघ के जीवन का प्रसंग है वे धन स गरीब होने के बाद भी बड़े दयालु और दानशील प्रकृति के थे । जब कोई व्यक्ति उनसे याचना कर लेता तो वे बिना दिये नहीं रहते । जो वस्तु उनके पास होती, उसकी माँग करने वाले को वह निश्चित ही मिल जाती है। एक बार एक व्यक्ति आया और दीन स्वर में बोला पण्डित जी ! लड़की का विवाह करना है । पैसे नहीं हैं पास में । इस लाज रख सकते हैं । कवि माघ ने सोचा अब क्या दूँ? पास में फूटी कौड़ी भी नहीं है । इसकी माँग कैसे पूरी करूँ? उन्होंने इधर-उधर देखा किन्तु देने योग्य कोई भी वस्तु नहीं मिली । अचानक उनकी दृष्टि अपनी पत्नी पर जा टिकी । वह सो रही थी । उसके हाथ
समय आप
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