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पर्वत पर तो नाम लिखने क लिये कोई स्थान ही खाली नहीं है।
मंत्री की बात सुनकर भरत चक्रवर्ती बोले-इसमें ज्यादा सोचने की क्या बात है? ऊपर के दो चार नाम मिटा दो और मेरा नाम लिख दो।
भरत चक्रवर्ती ने मंत्री को ऐसा आदेश दे तो दिया मगर वे ज्ञानवान पुरुष थे। व अपने मन में विचार करने लग-आज मैंने किसी का नाम मिटाकर अपना नाम लिखवाया है, कल कोई दूसरा आयगा वह मेरा नाम मिटाकर अपना नाम लिखवायेगा। यह नाम व मान आज तक किसी का भी स्थिर नहीं रहा । ऐसा विचारते-विचारते अपने अखण्ड आत्म स्वभाव की महिमा आई | क्षायिक सम्यग्दृष्टि तो थे ही अतः सोचने लगे कवल आत्मा का अखण्ड स्वभाव ही शाश्वत है, शेष सब तो छूट जाने वाला है।
जिस नाम, मान, सम्मान के पीछे मनुष्य दिन-रात एक किया करता है, दिन-रात पसीना बहाया करता है वह नाम व मान क्या स्थायी है।
मान-बढ़ाई एक कषाय है और कषाय का काम आत्मा को जलाना है। जिसके फल में नियम से हमारी दुर्गति ही होगी और दुर्गति में जाकर हम तो अनन्त दुःख भोग रहे होंगे और यहाँ हमारा नाम रोशन हो रहा होगा | इससे हमें क्या प्राप्त होगा। फिर एक बात यह भी है कि एक ही नाम क अनेक व्यक्ति हाते हैं, भविष्य में हमारे चले जाने के बाद यह कौन जाने गा कि ये मेरा ही नाम है। हमारे चले जाने के बाद जब हम ही नहीं रहेंग, तो क्या होगा। उस संगमरमर के पत्थर का जो हमने नाम के लिये दान देकर लगवाया है।
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