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करा कर ब्राह्मणों को भोजन करा रह हैं, वहाँ पर मेरा बाकी बचा आधा शरीर भी स्वर्णमयी हो जायेगा । इस प्रकार विचार करके यहाँ पर आया था, परन्तु मरा शष शरीर स्वर्णमयी नहीं हो रहा है। महाराज जान पड़ता है कि यह ब्राह्मण भोजन करुणा बुद्धि से नहीं केवल मान-बढ़ाई, प्रतिष्ठा क लिए कराया जा रहा है। इसलिए मेरा शरीर स्वर्णमयी नहीं हो रहा है। क्योंकि मान-बढ़ाई, प्रतिष्ठा आदि से किया गया कार्य निरर्थक होता है।
त्याग या दान करते समय प्रत्युपकार की कामना नहीं करना चाहिये । ऐसा भाव नहीं आना चाहिये कि मैं इतना त्याग कर रहा हूँ, मुझे इसके बदले में कुछ मिलेगा या नहीं। सोचो त्याग करने से मन में जो निराकुलता आई, जा आत्म संतोष और आनन्द मिला वह क्या कम है। दान करने से मुझे यश ख्याति मिले, मेरा नाम हा, मेरी बढ़ाई हो, मुझे सम्मान मिल एसी आकांक्षा नहीं रखना चाहिये | घर की शाभा दान से है, अतः दान अवश्य देना चाहिये । इसमें मात्रा को नहीं भावना को देखा जाता है | जैसी भावना, वैसा ही फल | प्रेमपूर्वक, शुभ वचन बोलकर सदा विनय पूर्वक दान देना चाहिये । प्रेम पूर्वक दिया हुआ थोड़ा भी बहुत होता है |
वर्णी जी के जीवन की घटना है। एक बार वे नैनागिर तीर्थ पर वंदना करने जा रहे थे। उन दिनों पक्की सड़क नहीं थी। धूल भरे रास्ते में ताँगे स जाना पड़ता था। वर्णी जी एक ताँगे में बैठकर जा रहे थे। रास्ता लम्बा था। ताँगा धीरे-धीरे जा रहा था। वर्णी जी ने सोचा नैनागिर तक पहुँचने में देर हो जायेगी इसलिये 4 पड़े साथ में रख लिये, ताकि उन्हें रास्ते में ही खा लंगे, नहीं तो रात हो जायेगी तो फिर भूख रहना पड़ेगा।
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