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उसके अन्दर एक मोती निकला, राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ । राजा ने मंत्री की ओर देखा । मंत्री ने कहा कि राजन् ! सारे फल रख लिये थे, फेके नही हैं । आप निश्चित रहें अभी लाता हूँ । राजा इस रहस्य को समझ नहीं पाये । उन्होंने साधु जी से इसका कारण पूछा तो साधु जी ने कहा कि राजन्! आप राजकाल में इतने व्यस्त रहते हैं कि अलग से उपदेश सुनने का समय नहीं निकाल पाते। मैंने सोचा ये फल किसी-न-किसी दिन आपको उपदेश देगा। यह फल तो मनुष्य की देह के समान है और इसमें रखा मोती, इस मनुष्य देह में बैठी आत्मा के समान है । मनुष्य की देह तो पूर्व संचित पुण्य से प्राप्त हो गई। अब इस बाह्य परिग्रह का त्याग कर मोक्षमार्ग पर चलकर इस देह में बैठी आत्मा को पाना शेष है । आत्मा का कल्याण करना शेष है, यही उपदेश मुझे इस फल के माध्यम से आपको देना था । राजा अपनी राजगद्दी से नीचे उतरकर साधु जी के चरणों में गिर गया और संसार से विरक्त होकर आत्म कल्याण में लग गया ।
त्याग में हमने कितना छोड़ा यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, इससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि हमने किन भावों से छोड़ा। जो जीर्ण तृण के समान अनुपयोगी जानकर अत्यन्त निस्पृह भाव से छोड़ा जाता है, वही त्याग श्रेष्ठ माना जाता है । इसी प्रकार वह दान श्रेष्ठ माना जाता है जो अत्यंन्त हर्ष पूर्वक प्रत्युपकार की भावना के बिना दिया जाता है ।
दान सदा स्व-पर कल्याण की भावना से सम्मान के साथ देना चाहिये और उसके बदले किसी प्रकार का अभिमान हृदय में उत्पन्न नहीं होना चाहिये, अन्यथा उससे आत्मा का कुछ लाभ भी नहीं हो पाता। हम लोग मान बढ़ाई के लिये कई प्रकार से दान देते आ रहे हैं। यदि मंदिर में काफी भीड़ हो तो हम बड़ी-बड़ी बालियाँ ले लेते
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