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एक बार एक साधु जी नदी के किनारे खड़े थे। उन्होंन देखा कि एक बिच्छू नदी में बहता चला आ रहा है। उन्होंने उसे अपने हाथ में उठा लिया। हाथ में उठाते ही बिच्छू ने उन्हें डंक मार दिया, जिससे साधु जी का हाथ हिल गया और बिच्छू पुनः पानी में गिर गया। साधु जी ने फिर से उसे उठा लिया, पर बिच्छ ने पुनः उन्हें डंक मार दिया। जब 6-7 बार बिच्छू न डंक मारा और फिर भी साधु जी उसे पानी में से उठाते रहे तो एक व्यक्ति जो यह सब देख रहा था, उससे रहा नहीं गया। वह बाला- महाराज! जब यह बिच्छू बार-बार आपको डंक मार रहा है, तब आप उस क्यों बचाना चाहते हैं? साधु जी बोले-'जब यह बिच्छू अपना स्वभाव नहीं छोड़ रहा, तो मैं अपना क्षमा स्वभाव कैसे छोड़ सकता हूँ? यह है एक जानवर और मैं हूँ एक इन्सान | यह कहलाती है क्षमा ।
वास्तव में उत्तम क्षमा के धारी तो दिगम्बर मुनिराज ही होते हैं। इसी कारण 500 मुनिराजों को घानी में पेल दिया गया, गजकुमार मुनिराज के सिर पर जलती हुई सिगड़ी रख दी गई, पाँचा पांडव मुनिराजों को गर्म लोहे के आभूषण पहना दिये गये, पर उन महामुनिराजों ने अपने क्षमास्वभाव, समतास्वभाव का नहीं छोड़ा और अपने शुद्ध स्वरूप में लीन होकर अपनी आत्मा का कल्याण कर लिया। परन्तु द्वीपायन मुनिराज ने उन पर उपसर्ग होने पर क्षमा छोड़ दी, उन्हें क्रोध आ गया, जिसके परिणामस्वरूप द्वारिका नगरी भस्म हुई और उन मुनिराज को भी दुर्गति में जाना पड़ा। क्षमा आत्मा का स्वभाव है। जिनके अन्दर क्षमाधर्म होता है, उनके प्रभाव से क्रूर-से-क्रूर प्राणी भी अपना क्रोध छाड़ देते हैं।
क्षमा भाव में हम स्वयं रहें, तो हम अपने आपकी रक्षा कर रहे हैं। क्रोध करके कौन-सा वैभव लूट लंग? शान्ति से रहें, न्याय-नीति
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