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करने वाली है। सारी जिन्दगी निकल गई कई लोगों की जिन्होंने कभी दान नहीं दिया, बल्कि जिन्होंने दिया है, उनके दाष ही निकाले
हैं।
बादशाह अकबर एक बार बीरबल से पूछते हैं कि लोगों की हथलियों में बाल क्यों नहीं होते? बीरबल बोले-राजन्! आपके हाथों के बाल दान देत-देते और हम लोगों क लेते-लेते समाप्त हो गये | कुछ लोग हाथों से देते भी नहीं, लेते भी नहीं, फिर इनकी हथलियों पर बाल क्यों नहीं? तो बीरबल ने कहा, जो न देते हैं, न लेते हैं, वे देते हुए को देखकर ही हाथ मलते रहते हैं, इसलिये मलत-मलते इनके हाथ साफ हो गये । सोचा, आप इन तीनों में से कौन हा? अपने आप से पूछ लेना | तुम हाथ मलने वाले हो कि लने वाले हो या देने वाले हो? दान से गृहस्थ की शोभा है। त्याग से साधु की शोभा है | त्याग साधु नहीं करेगा ता साधु नहीं कहलायेगा। गृहस्थ दान नहीं देगा तो गृहस्थ नहीं कहलायेगा। ‘परमात्म प्रकाश' के दूसरे अधिकार में कहा है कि जा साधु त्यागी नहीं है, वह साधुपने से भ्रष्ट है और जो श्रावक दानी नहीं है, वह श्रावकपने से भ्रष्ट है। मानव जीवन में तो त्याग धर्म ही उपादेय है।
जितने भी दुःख, दुान, क्लेश, बैर, शाक, भय, अपमान हैं, वे सभी परिग्रह क इच्छुक को होते हैं। जैसे-जैसे परिग्रह से परिणाम भिन्न होने लगते हैं, परिग्रह में आसक्ति कम होने लगती है, वैसे-वैसे ही दुःख कम होन लगता है | समस्त दुःख तथा पापों की उत्पत्ति का स्थान यह परिग्रह है। जिन्होंने इस परिग्रह को त्याग दिया, वे त्यागी पुरुष वास्तव में सुखी हैं और भविष्य में अनन्त सुख के धारी बनेंगे |
जो पूर्ण परिग्रह को त्यागने में समर्थ नहीं हैं, वे अपने धन का
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