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ब्रह्मचारी सुरेन्द्र वर्णी जी ने इस ग्रंथ में लिखा है-धर्म तो मूलतः एक ही है, केवल समझाने के लिये इसे दश अंगों में विभाजित किया गया है | उत्तम क्षमा, क्रोध का अभाव होने से प्रगट होती है। इसी प्रकार उत्तम मार्दव, मान का अभाव होने से हाता है। उत्तम आर्जव, माया का अभाव होने से होता है। उत्तम सत्य, असत्य के नाश होने से होता है। उत्तम शौच, लोभ के नाश से होता है | उत्तम संयम, विषयानुराग कम व नाश होने से होता है | उत्तम तप, इच्छाओं को रोकने (मन वश करने) से होता है। उत्तम त्याग, ममत्व (राग) भाव कम या नाश करने से होता है। उत्तम आकिंचन्य, निस्पृहता से उत्पन्न हाता है। और उत्तम ब्रह्मचर्य, काम विकार तथा उनके कारणों का छोड़ने से उत्पन्न होता है | इस प्रकार धर्म क ये दशलक्षण अपने प्रति घातक दोषों का अभाव होने से प्रगट हाते हैं।
किसी भी जैन व्यक्ति से जब यह प्रश्न पूछा जाता है कि दशलक्षण पर्व कैसे मनाया जाता है तो वह यही उत्तर देता है कि इन पर्व के दिनों में सभी लोग संयम से रहकर पूजन पाठ करते हैं, व्रत उपवास करते हैं, स्वाध्याय
और तत्त्व चर्चा में अधिकांश समय बिताते हैं || सर्वत्र बड़े-बड़े विद्वानां द्वारा शास्त्र सभाएं होती हैं, उनमें उत्तम क्षमादि धर्म क दशलक्षणों का स्वरूप समझाया जाता है। नगर में यदि त्यागी व्रती, सन्त महात्मा विराजमान हों तो उनके प्रवचनों का लाभ मिलता है | मंदिरों में शाम को धार्मिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। सर्वत्र धार्मिक वातावरण बना रहता है। पर्युषण पर्व में प्रायः सभी मन्दिरों में शास्त्र सभायें होती हैं। इस अपेक्षा से अभी तक छाटे-छोटे शास्त्र तो दशलक्षण प्रवचन पर बहुत थे, लेकिन कोई बड़ा शास्त्र जिसमं अनेक उदाहरणों, कहानियों द्वारा धर्म के इन दशलक्षणां की उपयोगिता के बारे में बताया हो, जो आसानी से समझ में आ जाए, ऐसा शास्त्र दुर्लभ था।
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