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जगत में करने को कोई काम नहीं पड़ा है। "होता स्वयं जगत परिणाम, मैं जग का करता क्या काम?" वस्तुतः ता कर्तृत्व बुद्धि को छोड़ कर जगत का साक्षी रहना, मात्र ज्ञाता-दृष्टा रहना चाहिये ।
ज्ञानीजीव का बाह्य परिग्रह से काई सम्बन्ध भी हो, तो भी अन्तरंग में उनके प्रति मूर्छा न होन क कारण उनका त्याग ही होता है। एक माँ ने अपने लड़के से पूछा कि बता, तुझे धन का एक बड़ा पहाड़ मिल जाये ता तू उसे कितने दिनों में दान कर देगा? उसने उत्तर दिया कि मैं तो उस एक क्षण में ही दान कर दूंगा, पर उठाने वालों की गांरटी मैं नहीं लेता कि वे कितने दिनों में उस उठायें । उठाने वालों का ठेका मैं नहीं लेता। यह है उत्तम त्याग की बात | सारे बाह्य पदार्थों को छोड़कर आत्मा के स्वरूप पर दृष्टि करो। जहाँ पर का प्रवेश नहीं, एकाकी ज्ञानमय चैतन्य मूर्ति पर दृष्टि हो, तो सब चीजों का त्याग हो गया | इन पर-पदार्थों के मोह को छोड़ो, जगत का बाह्य पदार्थ काई भी साथ नहीं देगा। माह के त्याग से ही संसार क संकट का अन्त हो सकता है।
एक बादशाह पशुओं की बोली जानता था। एक दिन वह छत पर खड़ा हुआ था, जहाँ घोड़े और बैल बंधा करते थे। घोड़े बैलों से कह रहे थ-क्यों रे भोले मूर्खा! तुम्हें जरा भी अक्ल नहीं। तुम्हारे ऊपर राजा इतना सारा बाझ लदवाता है और तुम ले आते हो । बैल बोले कि लाना ही पड़ता है | घोड़े ने बताया कि जब तुम्हें जोतने के वास्ते राजा क नौकर आयें, तो तुम मरे के समान पड़ जाना। राजा जानवरों की बाली जानता था, अतः उसने यह बात सुन ली। जब नौकर बैलों को जोतने के वास्त गये, तो वे घोड़ों की सलाह के अनुसार मरे से पड़ गये | नौकरां ने यह बात राजा से कही। राजा ने आज्ञा दी कि घोड़ों का जोत ले जाओ | घोड़े जोते गये, परन्तु घोड़े
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