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प्राप्त करने की सामर्थ्य हम सभी में है । यदि वैसा आनन्द चाहिये तो इन इच्छाओं का निरोध करो। जीव की दो परिस्थितियाँ होती हैं । (1) इच्छा सहित और (2) इच्छा रहित । अब सोचो इच्छा सहित वाली स्थिति में आनन्द है या इच्छा रहित वाली स्थिति में आनन्द है? तो स्पष्ट है कि आनन्द तो इच्छारहित स्थिति में है । इच्छा सहित स्थिति तो आत्मा के लिये दुःख रूप है। आचार्यां ने तो यहाँ तक कहा है 'मोक्षेऽपि यस्य नाकांक्षा स मोक्षमचिगच्छति इत्युक्तवा द्वितान्वेषी कांक्षा न क्वापि योजयेत् । अर्थात् जिसके मोक्ष में भी इच्छा है, वह मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता । इस कारण हित चाहने वाला पुरुष कहीं भी इच्छा न करे । इसकी रीति यह है कि पहिले तो इच्छा होती है मोक्ष के लिये, वह अभ्यस्त हो जाता है और अपने ब्रह्मस्वरूप के अनुभव में पारगामी हो जाता है उस समय उसे कोई भी इच्छा नहीं रहती । केवलज्ञानस्वरूप आनन्दमय आत्म तत्त्व का भान रहता है । ऐसे योगी को मोक्ष होता है ।
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समस्त परिस्थितियों में समताभाव रखो। अपने लिये किसी से कुछ न चाहो, यह एक बड़ा तप है । अपने लिये घर न चाहो, इज्जत न चाहो जन्म-मरण के चक्र में रुलने वाले किसी पुरुष ने आपसे कह दिया कि बाबू साहब तो बड़े अच्छ हैं, इससे कौन-सी उन्नति होगी? सर्व प्रकार की इच्छाओं का निरोध करो और ऐसी निगाह रखो कि जो कुछ भी होता है, वह भले के लिये ही होता है ।
एक राजा और मंत्री थे। मंत्री को यह कहने की आदत थी कि जो कुछ होता है वह भले के लिये होता है। एक बार राजा मंत्री के साथ जंगल में मंत्री से पूछता है कि मेरे 6 अंगुली हैं सो यह कैसा है ? मंत्री ने कहा बहुत अच्छा है, यह भी भले के लिये है । उस राजा को गुस्सा आ गया । सोचा कि मैं तो छिंगा हूँ और यह कहता है कि
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