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राजा श्रेणिक ने सब कुछ बड़ी लगन से सुना | वे ध्यान मग्न हो गय | श्रावक श्रेष्ठ के वचन उनके हृदय में सीधे उतर गये और बार-बार गूंजने लगे| सम्राट श्रेणिक को लगा। उनके ज्ञान के बंद कपाट मानो खुल रहे हों और उनका हृदय समता के प्रकाश से भर रहा हो। उन्हें यह भी लगा कि उनकी समस्या सुलझ गई है और उनकी याचना पूर्ण कृतार्थ हो गई है। सम्राट अति संतुष्ट और प्रसन्न मन से श्रावक श्रेष्ठ को नमस्कार कर अपने राजभवन लौट गये ।
दूसरे दिन समवशरण में देखा गया कि अणिक शान्त और संतुष्ट बैठे हुये महावीर भगवान की वाणी को मनोयाग से सुन रहे हैं। भगवान की वाणी में यह भी आया कि श्रेणिक का जीवन परम भव्य है और वह इसी भरत खण्ड में तीर्थंकर होगा।
यह सुन अनेक लोग सम्राट श्रेणिक का देखने मुड़े, लकिन श्रेणिक के मुख मण्डल पर, आह्लाद के और न ही विषाद के कोई भाव लक्षित हो रहे थे। ऐसा लगता था कि वे समता में निमग्न हैं। समता धन के आ जाने से कल के और आज क श्रेणिक में कितना परिवर्तन आ गया था।
"तपसा निर्जरा च” आचार्य उमास्वामी महाराज ने लिखा है कि तप के द्वारा संवर तथा निर्जरा दोनों ही होते हैं | मोक्ष उपादेय तत्त्व है और संवर तथा निर्जरा उसके साधक तत्त्व हैं। इनके बिना मोक्ष होना संभव नहीं। अतः मुक्ति प्राप्त करने के लिये तपश्चरण करना जरूरी है | तप करने वाले मुनिराज ही कठिन परिस्थितियों में अपने समताभाव का स्थिर रख पाते हैं -
अभिनन्दन आदि 500 मुनिराजों को घानी में पल दिया था। इस
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