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बाला-महाराज! सामायिक ता समता का नाम है। सुख-दुःख, शत्रु-मित्र, वन-भवन, योग-भोग आदि में अलिप्तता होना (या) समभाव रखना सामायिक है | ऐसी सामायिक काई किस प्रकार दूसरे को दे सकता है? वह तो पर में ममता के त्याग से, तपश्चरण के द्वारा इच्छाओं का निराध करने से हृदय में उतरती है, महाराज! सामायिक देय वस्तु नहीं है, हाँ वह उपादेय अवश्य है।
सम्राट कुछ देर चुप रहे, फिर अपनी समस्या उन्होंने रखी तो श्रावक श्रेष्ठ बोला-महाराज! पहले अपने हृदय से अपने रत्न, वैभव एवं साम्राज्य क अहंभाव का हटायें, सब पर्यायं मिथ्या हैं, नश्वर हैं, स्वर्ग नरक भी पर्यायें हैं उनमे आसक्ति त्यागें तो न वे सख दने वाली हैं, न दुःख देने वाली हैं।
सम्राट बोले - ह श्रावक वर! क्या सामायिक से नरक का दुःख मिट सकता है?
पुण्य प्रभ श्रावक बोला, महाराज! सामायिकी या समदृष्टि होने पर बाहर के न सुख प्रिय लगत हैं और न दुःख अप्रिय | पं. दौलतराम जी ने लिखा है - वह स्वर्ग में भी रमत अनेक सुरनि संग, पै नित तिस परिणति तं हटाहटी तथा नरक में बाहर नारकी कृत दुःख भागत, अंतर सुखरस गटागटी करता है । स्वर्ग में दवियों के साथ रमण करता हुआ भी उनसे छुटकारे के लिय छटपटाता है और नरक के दुःख भोगते हुए भी अंतर में आत्म-सुख का गटागट पान करके अपूर्व सुख का अनुभव करता है। सुख-दुःख तो पर-पदार्थों में हमारी ममता की दन है। ममता से नाता तोड़ो और समता से नाता जोड़ो तो सुख-दुःख की सब उलझनें अपने आप सुलझ जाती
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