________________
नहीं, दास बनकर सीखना होगा । जाओ, उसके चरणों में बैठकर विनय - पूर्वक विनती करो, उसे गुरु स्वीकार करो । लक्ष्मण ने ऐसा ही किया और अब की बार उसे निराश नहीं लौटना पड़ा ।
एकलव्य ने भी धनुर्विद्या सीखी थी गुरु द्रोण की प्रतिमा से, प्रतिमा से नहीं साक्षात् गुरु से शिष्य बनकर, सच्चा शिष्य बनकर । जब वह सही निशाना लगाता तो गुरु (अर्थात् उस प्रतिमा) के चरण छू लेता और जब लक्ष्य चूक जाता तो गुरु के समक्ष अपनी निन्दा करता। उसकी विनम्रता का ही परिणाम था कि उसने अर्जुन को भी मात कर दिया। हमें भी देव शास्त्र व गुरु की अत्यन्त भक्ति-भाव से विनय करनी चाहिये, तभी सीख पायेंगे धर्म के स्वरूप को, अपने आत्मतत्त्व को ।
3. वैयावृत्य तप – वैयावृत्य तप का अर्थ है, विरक्त संत-पुरुषां की सेवा करना, पूज्य पुरुषों की सेवा करना । सेवा करते समय पूज्य पुरुषों के प्रति श्रद्धाभाव हो और उनके गुणों में अनुराग हो, तो ही सही सेवा कहलाएगी। मुनिराजों की सेवा करते समय हमें उनके जैसे बनने की भावना रखनी चाहिए । वैयावृत्ति करने वाले के अंतरंग में दया, करुणा और अनुकम्पा सहज ही उत्पन्न हो जाती है । आचार्यों ने लिखा है कि जो वैयावृत्ति करता है वह ग्लानि को जीत लेता है, उसे समाधि की प्राप्ति होती है और आगामी जीवन में निरोग शरीर की प्राप्ति होती है। महाराजों की सेवा से हमें ज्ञान, वैराग्य की प्राप्ति सहज ही हो जाती है ।
अन्य धर्मों में भी वैयावृत्य कहीं-कहीं दूसरे रूपों में भी देखने में आती है । गौतम बुद्ध के जीवन की घटना है। एक बार बाण से घायल पक्षी को उन्होंने अपनी गोद में उठा लिया, उसका आवश्यक
437