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दिखावे के लिये या किसी भी लौकिक इच्छा का रखकर किया गया तप कार्यकारी नहीं होता। हमारा तप मायाचार, ख्याति, लाभ तथा इच्छाओं से रहित होना चाहिये ।
बाह्य तप के समान अन्तरंग तप भी छ: प्रकार के होते हैं -
1. प्रायश्चित्त तप - कोई अपने में दोष लग तो गुरुजनों के समक्ष पश्चात्ताप ग्रहण करना प्रायश्चित्त तप है | अन्तरंग में बिना परिणाम निर्मल बने गुरुजनों के समक्ष प्रायश्चित्त लेने की बात मन में नहीं आती। अपनी गलती पर जब मन में राना आ जाये तब प्रायश्चित्त लने की बात मन में आती है। इस तप से अन्तरंग परिणाम अत्यन्त निर्मल हो जाते हैं।
कुलभूषण, दशभूषण की कथा आती है | जब वे दोनों भाई बहुत दिनों बाद विद्या पढ़ कर वापिस आये और नगर-प्रवेश के समय अपनी बहिन कमलोत्सवा को देखा, तो जानकारी न होने से उन दोनों के भाव उससे शादी करने के हो गय, बाद में जब वह माता-पिता के साथ भाइयों की आरती करने आयी, माता-पिता ने कहा-देख, तेरे भईया कितने बड़े हो गये हैं? तब इन्हें पता लगा कि यह ता हमारी बहिन है। तो उनको अपन विभाव पर बड़ा पछतावा हुआ, वे विचार करने लगे दखो तो, मैंने अपने मन को कितना गंदा कर लिया और वे तुरन्त वापिस लौट गये तथा उन्होंन मुनि दीक्षा धारण कर ली। यह प्रायश्चित्त का ही फल था ।
राजा श्रेणिक ने यशोधर मुनिराज के गले में मरा हुआ सर्प डालकर 33 सागर की 7 वें नरक की आयु का बन्ध कर लिया था पर बाद में जब उन्हें ज्ञात हुआ यह तो सच्चे परम तपस्वी मुनिराज हैं, मैंन घोर अनर्थ का कार्य किया तो उन्हें इतना पश्चात्ताप हुआ कि
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