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साधन और साध्य के अन्तर को ही मैंने मिटा दिया। भोगों को इतना भोगा कि जीवन को ही भोग बना दिया। काल को मैंन बिताया नहीं बल्कि मैं खुद ही बीत गया। तप के लिये मैंने तपा नहीं, बल्कि मैं खुद ही तप गया । तृष्णा जर्जर कहाँ हो पाई ? मैं स्वयं जीर्ण / जर्जर होता गया । अपनी इच्छाओं का निरोध करो। इसी में सबका हित है । यही सबसे बड़ा तप |
उमास्वामी महाराज ने सूत्र दिया है इच्छा निरोधः तपः।" अन्तस में उठने वाली इच्छाओं का निरोध करना तप है । और वास्तव में सम्यक् तप वही है जिसके माध्यम से इच्छाओं का निरोध हो । देखो वारिषेण महाराज के पास पुष्पडाल ने दीक्षा ग्रहण कर ली थी, पर पुष्पडाल महाराज के मन से इच्छा का अभाव न हो पाने के कारण 12 साल की तपस्या के बाद भी शान्ति का अनुभव नहीं हुआ । जब वारिषण महाराज ने देखा इनके अन्दर अभी भी इच्छा शेष है, तो पुष्पडाल महाराज से बोले- चलो, आज शहर चलते हैं। पुष्पडाल महाराज खुश हो गये कम-से-कम अपना मकान व बीबी - बच्चों को तो देख लेंगे वे कैसे रहते हैं । वे दोनों महाराज जब राजमहल पहुँचे तो माँ चौंक गई कि वारिषेण के मन में कौन-सी इच्छा जागृत हो गई? तब उसने परीक्षा करने के लिये एक सोने का और एक काष्ठ का आसन बैठने का रखा और कहा - महाराज ! बैठिये । वारिषेण महाराज काष्ठ के आसन पर और पुष्पडाल महाराज सोने के सिंहासन पर बैठ गये । महाराज माँ से बोले-हमारी सभी पूर्व पत्नियों को पूरे श्रृंगार के साथ बुलाया जाये। ऐसा ही किया गया । उनको देखकर पुष्पडाल महाराज बहुत लज्जित हुये कि देखो इन्होंने ऐसे राज्य - वैभव और सुन्दर-सुन्दर स्त्रियों को छोड़ दिया और मैं अभी तक अपनी सामान्य - सी स्त्री के मोह को भी नहीं छोड़ पाया। अब उन्हें सच्चा
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