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ऐसा नहीं है। इसी से तो सीता जी के वैराग्य उमड़ा सीता जी के लिये कुछ बन्धन नहीं हुआ, वे विरक्त हो गई और समस्त इच्छाओं को नष्ट करने के लिये (इच्छा-निरोध-रूपी) तपस्या में लग गई। जब तक इच्छायें थीं तब तक बन्धन था। अशोक वाटिका में उन्हीं सीता जी की आँखों से राम के वियोग में आँसू नहीं रुकते थ और आज स्वयं रामचन्द्र जी घर जाने की प्रार्थना कर रहे हैं, पर अब सीता जी को बन्धन ग्रहण करना स्वीकार नहीं है | जब इच्छायें खत्म हो गयीं, तब उनका बन्धन भी खत्म हो गया।
बड़े-बड़े रईस लोग आज-कल भी अपनी पत्नी, धन वैभव इत्यादि को छोड़कर अलग हो जाते हैं, विरक्त हो जाते हैं, क्योंकि इच्छा का बन्धन उनके नहीं रहा । इच्छा तक ही साम्राज्यां से लगाव था। इच्छाओं क समाप्त हाते ही वे बड़े-बड़े व्यक्ति भी सब कुछ छोड़ देत हैं। कहते हैं न कि फला आदमी मोह-प्रसंग से अलग हो गया। अरे! अलग हो गया तो उसने अपने को बन्धन में बाँधने की इच्छा नहीं की, इसलिये अलग हा गया । बन्धन तो इच्छा को कहते हैं। किसी को अपना मानना कि यह मेरा है, यह अमुक-का है, यह फलाने-का है, इत्यादि से विपदायें हैं। भीतर से अगर जरा भी ज्ञान आ गया कि यह मेरा है तो बस दुःख उत्पन्न हो गया।
जिन्हें हम अपना हितेषी मान रहे हैं, वे सब स्वार्थ क सग हैं | जिसमें उन्हें लाभ दिखता है, केवल उसी में साथ देते हैं | 'सुख के सभी साथी, दुःख में न कोय' ।
एक सेठानी बुढ़िया थी। उसका पति गुजर गया। लोगों ने बुढ़िया से पूछा-क्यों रोती हो? उसने कहा 10-12 दुकानें हैं उनका हिसाब कौन लेगा? पंचायत के सरदार ने कहा गम न करो, रोती
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