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________________ संयम को धारण करने वाले मुनिराज इन्द्रिय संयम एवं प्राणी संयम दोनों का पूर्णतया पालन करते हैं। एक बार एक साधु महाराज एक गृहस्थ क यहाँ भिक्षा के लिये गये थे | वह उस समय मोतियों की माला बना रहा था। वह साधु जी को देखकर खड़ा हो गया, उनकी विनय की और मातियों को वहीं छोड़कर अंदर भिक्षा ले न चला गया, उसे सााधु जी पर भरोसा था। पर जब वह भिक्षा लेकर आया तो मोती के दान वहाँ पर नहीं थे। उसने सोचा अभी यहाँ और कोई तो आया नहीं साधु जी ने ही ये मोती चुरा लिये। उसने साधु जी से पूछा पर साधु जी कुछ न बोले । उसने साधु जी को डाटना शुरू कर दिया, पुलिस की धमकी दी पर जब साधु जी कुछ न बोले, ता उसने एक चमड़े की पट्टी को गीला करके साधु जी के मस्तक पर कसकर बांध दिया। ज्यों-ज्यां गर्मी बढ़ती गई पट्टी और अधिक कसने लगी पर साधु जी परीषह जानकर समता भाव से सहते रहे | शाम को ऊपर पेड़ पर घोंसले में बैठी चिड़िया ने बीट की ता वे सब मोती नीचे गिर गये | उस श्रावक ने देखा-अरे! य मोती तो चिड़िया ने चुग लिये थे | उसे अपने कृत्य पर बड़ा दुःख हुआ, उसने साधु जी से माफी माँगी और पूछा-आप इतना कष्ट सहते रहे, पर आपने बताया क्यों नहीं? साधु जी बोले-मैंन यह कष्ट तो सह लिया पर तुम उस चिड़िया के साथ जो करत, वह मैं नहीं सह पाता। इसलिये कहा है कि मक्खन कोमल होता है, पर सन्त का मन मक्खन से भी कोमल होता है | मक्खन तो खुद की आँच से पिघलता है, पर सन्त दूसरे की पीड़ा से पिघल जाते हैं। इस प्रकार समता स्वभाव में लीन मुनिराज जहाँ एक ओर इन्द्रिय संयम का पूर्णतया पालन करते हैं, वहीं षटकाय के जीवों की रक्षा (397)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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