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हुई पर आप तो इस पर रोज सोत हो, आपका न जाने क्या होगा। राजा को बोध प्राप्त हो गया। इन्द्रिय-भोगों से कभी भी तृप्ति नहीं मिलती, उल्टी तृष्णा और बढ़ जाती है। विषय-भोगों में सुख मानना तो मृग-मरीचिका के समान भ्रम मात्र है । रेगिस्तान में मृग बालू की चमक को जल समझकर दौड़ता जाता है, कि अब मिला जल, अब मिला जल पर अन्त में वह थक कर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, लेकिन उसे जल की प्राप्ति नहीं होती। इसी प्रकार मनुष्य सुख प्राप्ति की इच्छा से जीवन पर्यन्त भोगों को भोगता रहता है, पर उसे सुख की प्राप्ति नहीं होती।
जिस मनुष्य-शरीर स हम माक्ष रूपी हीरे का खरीद सकते थे, उसे कंकड़ पत्थर खरीदने में व्यर्थ / बरबाद कर देते हैं। हम कौआ उड़ाने के लिये रत्न फेक रहे हैं या राख प्राप्त करने के लिए रत्नों को जला रहे हैं। जैसे एक व्यक्ति को हाथ धोने के लिये राख की जरूरत थी सो उसने तिजोड़ी में से कीमती रत्नों का जलाकर राख बना ली और उससे हाथ धो लिये | वह ता मूर्ख था, पर हम भी उसस कम नहीं है । जिस मनुष्य पर्याय से परमात्मा बनने की साधना करनी थी, उसे विषय-भागों में व्यर्थ / बरबाद कर रहे हैं। और चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करत हुये दुःख उठा रहे हैं। पं. भूधरदास दास जी कहते हैं -
इस भव वन के माँहि, काल अनादि गमायो ।
भ्रम्या चहुँ गति माँहि, सुख नहिं दुःख बहू पायो ।। अरे! कहाँ-कहाँ रहे हम, कितने दुःख उठाये? चौरासी-लाख योनियों में बार-बार चक्कर लगाते रहे, फिर भी जिनवाणी सुनने के बाद भी कैसे विषयों में मस्त हो रहे हैं? लेकिन अपने कल्याण के
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