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मुनिव्रत ग्रहण कर लिया अर्थात् हाथ से कशलोंच करके कमण्डलु
और पिच्छि लेकर जहाँ सभा बैठी थी, वहाँ पहुँच गया। राजा इस वष को देखकर हैरान रह गये और सिर झुकाकर बोल-हे मुनिराज ! हमें ऐसी शिक्षा दें जिससे हम शाक रहित हो जायें।
ब्रह्मगुलाल जी कहते हैं कि लाख यत्न करने पर भी काई सुख व दु:ख नहीं दे सकता | मन की शंका को छोड़ कर अपने हित के लिये परिश्रम करो। राजा क्रोध मत करा | इस संसार का रूप अनोखा है | यह संसार दुःखों का सागर है | यहाँ सुख नहीं, इसलिये मन की दुविधा को छोड़कर इस संसार के क्षणभंगुर रूप का विचारो। हमारे हाथ से राजकुमार मर गया, अज्ञानता वश घोर पाप हो गया । अब तन की ममता को छोड़कर आत्मिक त्याग करेंगे। मुनिराज के रूप को देखकर राजा ने बैर त्याग दिया और प्रगट रूप में कहा-तुम्हें जो चीज अच्छी लगे, माँग लो। मुनिराज बोले-हमारा मन तो वैराग्य-भावना में लीन हो गया है । हे राजन्! हमें क्षमा कीजिये | हम वनवासी हैं, हमने इच्छाओं का दमन कर दिया है। राजा बोले-तुमने तो यह सिर्फ रूप धारण किया था, जैसे अन्य-अन्य रूप धारण करते थे | ब्रह्मगुलाल बोला-राजन्! यह मुनिवेश अन्तिम वेश होता है। इसे ग्रहण करने के बाद छोड़ा नहीं जाता।
इधर सारे नगर में चर्चा फैल जाती है कि ब्रह्मगुलाल मुनि हो गये | आगे-आगे मुनिवेश में ब्रह्मगुलाल और पीछ-पीछे नगर वासी, माता-पिता और पत्नी शोकरत होकर चलने लगे। वन में पहुँचकर मुनिराज मोह का नाश करने के लिय तपस्या करने लगे | वन में परिवार जनों ने अपनी-अपनी तरह से ब्रह्मगुलाल मुनि को समझाने का प्रयत्न किया। बेटा घर चलो, तुम वन में क्यो बैठे हो? तुमने तो हंसी-हंसी में स्वांग रचाया था। अब मन में क्या सोचकर मुनिवश
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