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उसकी अपनी निज आत्मा का स्वाभाविक गुण है, सुख और शान्ति की खोज संसारी पदार्थों में करता है । यदि संसार में सुख होता, तो छियानवे - हजार स्त्रियों को भोगने वाला, बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं का सम्राट, जिसकी रक्षा देव करते हैं, ऐसा नौ निधि का स्वामी, चक्रवर्ती राजसुखों को लात मारकर, संसार को त्यागकर संयम को क्यों धारण करता? जब संसारी पदार्थों में सच्चा आनन्द नहीं हैं, तो उनकी इच्छा, मोह, ममता क्यों ? संसार में तिल - तुष मात्र भी सुख नहीं हैं । अपरंपार दुःख - ही - दुःख है । अतः इस संसार को त्यागकर, संयम को धारण करके, आत्म सुख को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिये ।
जब लक्ष्मण की मृत्यु हो गई, तब राम लक्ष्मण के शव को अपने कन्धे पर रखे हुये घूम रहे थे। वे महाराज से कहते हैं - आप मुझे कोई शान्ति का उपाय बता दीजिये । महाराज बोले- जब तक तुम इस शव को नीचे नहीं उतारोगे, तब तक तुम्हें शान्ति नहीं मिल सकती । इस शव को नीचे उतार दो, तुम्हें शान्ति मिल जायेगी । इसी प्रकार जब तक हम इस गृहस्थी के भार को नहीं उतारेंगे, तब तक शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती ।
जीव अकेला है, जीव का कोई नहीं है । यह जीव भव भव में अकेला ही जावेगा, अतः संयम के मार्ग पर जितनी जल्दी बढ़ सकते हो, बढ़ो। प्रमाद मत करो। सम्यग्दृष्टि गृहस्थ जल में कमल की तरह भिन्न रहकर आंशिक साधना करते हैं, पर अन्ततोगत्वा उन्हें गृहवास छोड़ने पर ही मुक्ति मिलती है। मोक्ष का मार्ग संसार के मार्ग से विपरीत है। किसी ने लिखा है
एक पंथ दोई चले न पन्था, एक सुई दो सिये न कंथा ।
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