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लिये उसकी मँगनी कर ली और उसे अन्तःपुर में भिजवा दिया। भगवान का उपदेश सुनकर गजकुमार को वैराग्य हो गया । उनका वैराग्य इतना उत्कृष्ट था कि उन्होंने वहीं दीक्षा लेकर समवशरण भी छोड़ दिया और जंगल में जाकर एकान्त स्थान पर ध्यानारूढ़ हो गये | जिस ब्राह्मण की कन्या का संबंध गजकुमार से हुआ था, वह ब्राह्मण जंगल से लकड़ियाँ इकट्ठी करके लौट रहा था, उसकी दृष्टि जैसे ही गजकुमार मुनिराज पर पड़ी, वह आगबबूला हो गया और बोला ‘रे दुष्ट' मेरी अत्यन्त प्रिय सुकुमारी पुत्री को विधवा बनाकर तू यहाँ साधु बन गया है, मैं अभी देखता हूँ तेरी साधुता को “ऐसा कहकर उसने अपने साथ लाई हुई लकड़ियाँ जलाईं। समीप ही तालाब था, उसने तालाब के पास की गीली मिट्टी लाकर गजकुमार के केशलुंचित सिर पर चारों ओर पाल बांधकर उसके भीतर धधकते हुये अंगारे भर दिय ।” गज कुमार का सिर बैंगन के भर्ते के सदश खिल गया. कपाल फट गया परन्त गजकमार मनिराज शरीर से भिन्न आत्मा के ध्यान में ऐसे लीन हुये कि उसी अन्तर्मुहूर्त में इतनी अल्पवय में ही मुक्ति को प्राप्त कर लिया। संयम के धारी मुनिराज कितने भी उपसर्ग व परीषह हों, पर अपने समता भाव से च्युत नहीं होते।
मुनिराज तो पूर्ण संयम के धारी हात ही हैं लकिन हमें भी अपन मन व इन्द्रियों का अपने नियंत्रण में रखना चाहिये | घोड़े को लगाम की, हाथी का अंकुश की, ऊँट को नकील की और साइकिल, स्कूटर आदि वाहनों क लिए ब्रेक जरूरी है। ब्रेक है तो सुरक्षा, नहीं ता एक्सीडेन्ट | मोक्षमार्ग पर चलने के लिये हमारे जीवन में भी नियम-संयम का ब्रेक होना चाहिय | संयम के बिना नर जन्म की सार्थकता नहीं है | संयम से रहित व्यक्ति किसी भी गति में जा सकता है। संयम के
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