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हैं वे कभी असत्य नहीं बोलते |
कबीरदास जी के जीवन काल की एक घटना है। कबीर ता जुलाहा थे, जो अपनी आवश्यकताओं को सीमित करते हुए जीवन व्यतीत करते थे तथा अपनी चिंतन साधना में संलग्न रहते थे। एक दिन कबीर जी अपने हाथ की बनी हुई पगड़ी लेकर बेचने निकले | सुबह से शाम हो गई, पर किसी न पगड़ी नहीं खरीदी | आखिर निराश होकर शाम को घर लौट आए | दसरे दिन सबह बडी आशा लेकर बाजार के लिये चले, परन्तु शाम का उतनी ही गहरी निराशा स लौटना पड़ा। यह मन ऐसा है जो आशा से ही जीता है | तीसर दिन भी मन में आशा संजोये कबीर जी घर से निकले, पर शाम का उनकी आशा चकनाचूर हो गई । जब यह स्थिति तीन दिन कबीर जी की बेटी ने देख ली तो पूछ लिया-पिता जी क्या बात है? रोज शाम आपका चेहरा बड़ा उदास लगता है | कबीर ने बड़े ही धीमे स्वर में कहा कि राज बड़ी आशा स इस बुनी हुई पगड़ी का बेचने बाजार जाता हूँ | पर कोई भी इस नहीं खरीदता | आज तीसरा दिन है जा मैं वापिस लौटा हूँ| यह सुनते ही बेटी ने कहा आप बिलकुल चिंता नहीं करें कल पगड़ी अवश्य बिक जायेगी।
दूसरे दिन सुबह कबीर जी की बेटी जल्दी ही तैयार हो गई और पगड़ी लेकर बाजार पहुँच गई | थोड़ी ही देर में वह पाँच टके की पगड़ी को सात टके में बेचकर घर लौट आई। कबीर तो यह देखकर हैरान हो गए और बेटी स पूछा कि ऐसा तूने क्या किया जो इतनी जल्दी बेचकर आ गई? बेटी ने कहा पिताजी | पाँच टके की पगड़ी की कीमत मैंने पहल ही दस टके बताई। तब ग्राहक ने कहा मैं पाँच टक में लूंगा। फिर थोड़ी देर में सौदा सात टके में तय हुआ और इस तरह मैंने जो पगड़ी पाँच टके की थी उसे सात टक में बेच दिया।
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