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यहाँ से नहीं निकली, तो उस स्थिति में बोला गया झूठ भी तुम्हारा सत्य ही है। एक संदर्भ यह भी आता है कि कोई बहेलिया चिड़िया को मुट्ठी में ल करके पूछता है कि चिड़िया मरी है या जिंदा है? तुम देख भी रहे हो कि वह पंख फड़फड़ा रही है और तुमने कह दिया कि अरे मुझ ता लग रहा है कि वह मरी है, तब वह तुरन्त उड़ाकर कहेगा, देखो चिड़िया जिन्दा है। तुम्हें इतना भी नहीं मालूम कि मरी थी या जिंदा थी। अर! हाँ! मैं समझ नहीं पाया, वो तो जिंदा थी। चिड़िया उड़ गई, चिड़िया के प्राण बच गए। तुम ने बोला तो झूठ, लेकिन वह झूठ भी सत्य के बराबर हो गया, क्योंकि वहाँ पर प्राणों की रक्षा हुई है | जहाँ करुणा और अहिंसा जुड़ी हो, धर्म जुड़ा हो, वहाँ बोला गया झूठ भी सत्य होता है। किन्तु जहाँ पर स्वार्थ जुड़ा होता है, जहाँ प्राणी का घात जुड़ा होता है, वहाँ पर बोला गया सत्य भी झूठ के बराबर हो जाता है |
श्री समता सागर जी महाराज ने लिखा है - सत्य हित, मित, प्रिय हो । हित का अर्थ अपना और पर का भला करने वाला हो । मित
का अर्थ बोला गया परिमित हो, अनावश्यक न हो, मर्यादित हो | और प्रिय का अर्थ कठोर, कर्कश, मर्मभेदी न हो, श्रुति सुखद हो । कड़वा
और मधुर सच क्या होता है? और मधुर झूठ क्या होता है? तुलसीदास जी की भाषा और कबीरदास जी की भाषा देखिये - तुलसीदास जी भीख माँगने निकले हैं, उन्होंने आवाज दी ओ मेरी माँ! भिक्षा में कुछ मिल जाय और घर के अंदर से माँ निकली और प्रसन्न मन से भिक्षा दे दी। कबीरदास जी भी अपनी अक्खड़ प्रकृति से बाहर निकलते हैं और कहते हैं, ओ मेरे बाप की पत्नी! भिक्षा में कुछ मिल जाय | बात एक ही है पर कहने का ढंग बदल गया है और इसी में भला बुरा भी हो गया । भाषा बदली तो सामने वाले के भाव भी बदल गए। मेरी माँ
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