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रहे, ये लोभ मन में समा जाता है । क्रोध, मान, माया, लोभ पवित्रता में बाधक हैं । इन पर विजय प्राप्त करके ही आत्मा को पवित्र बनाया जा सकता है ।
शौच धर्म पाया नहीं किया लोभ से नेह । अशुचि रही यह सदा ही, सारी नर की देह || लोभ पाप का बाप है लोभ नरक की खान । ज्ञान का होता नाश है, छा जाता अज्ञान ।। विशद सिन्धु कहते हैं, भैया लाभ न करना ।
छूट जायेगा तू इस जग से, नहीं पड़ेगा मरना । ।
धर्म का पाँचवां लक्षण है- उत्तम सत्य । कषायों के शान्त हो जाने पर अपने सत्यस्वरूप की अनुभूति हो जाती है। जिसको शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सके, वह सत्य है । सत्य अनुभूति है, जिसको केवल महसूस किया सकता है, लेकिन कहा नहीं जा सकता । जिसे सत्य की अनुभूति हो जाती है, वह राजमहल में रहता हुआ भी, भरतजी की तरह घर में रहते हुये भी वैरागी रह सकता है । कहा भी है - " भरत जी घर में ही वैरागी ।" जिसने सत्य की अनुभूति कर ली है, उसकी ऐसी अवस्था हो जाती है। कबूतर भी संसार में है और तोता भी संसार में है । सत्यानुभूति करने वाला जीव संसार में तोते की तरह रहता है । जिसकी आसक्ति टूट गयी, वह ताते की तरह रह सकता है, जिसकी आसक्ति नहीं टूटी, वह कबूतर की तरह रहेगा । तोते को कितना भी खिलाओ - पिलाओ पर जैसे ही खिड़की खुली मिली कि फुर्र से उड़ जाता है। इसी तरह जिसे सत्यानुभूति हो जाती है, वह संसार में ऐसे ही रहता है । वह सदैव सोचता रहता है कि मुझे कब संसार से छुट्टी मिले और मैं मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर
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