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भेद का भान हो जाता है । आत्मा की सही पहचान हो जाती है । भेद विज्ञान के अभाव में ही यह जीव अनादि काल से संसार में भ्रमण करता हुआ दुःख उठा रहा है ।
एक जंगल में से दो मुनिराज जा रहे थे। शरीर की दृष्टि से वे पिता पुत्र थे । पुत्र आगे-आगे चल रहा था, पिता पीछे थे। जंगल एक - दम भयानक था । दोनों तत्त्व चर्चा करते जा रहे थे, शरीर अलग है और चैतन्य आत्मा अलग है, शरीर के नाश से आत्मा का नाश नहीं होता । अचानक सामने से गर्जता हुआ सिंह आता दिखा | पिता ने पुत्र कहा तुम पीछे आ जाओ यहाँ खतरा है । किन्तु पुत्र नहीं आया । सिंह सामने आ चुका था । मृत्यु सामने खड़ी थी । पुत्र बोला, मैं शरीर नहीं हूँ, मैं तो चैतन्य आत्मा हूँ, मेरा नाश हो ही नहीं सकता, मेरी मृत्यु कैसी ? पिता तो डरकर भाग गया, लेकिन पुत्र आगे बढ़ता गया, सिंह ने उस पर हमला कर दिया। वह गिर पड़ा था। पर उसे दिखाई पड़ रहा था कि जो गिरा है वह मैं नहीं हूँ । वह शरीर नहीं था, इसलिये उसकी मृत्यु नहीं हुई । पिता मात्र कहता था, कि शरीर हमारा नहीं है, परन्तु दिखाई उसको यह दे रहा था कि शरीर हमारा है । शरीर भिन्न है, आत्मा भिन्न है कहने मात्र को स्व-पर भेद विज्ञान नहीं कहते । सच्ची श्रद्धा से जीवन में परिवर्तन होता है, कहने से नहीं । इसलिये सम्यग्दर्शन अर्थात् स्व- पर की सच्ची श्रद्धा को मोक्षमार्ग कहा है। ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव को पं. बनारसी दास जी हाथ जोड़कर नमस्कार कर रहे हैं ।
भेद विज्ञान जग्यौ जिनके घट, सीतल चित्त भयाजिमि चंदन | केलिकरें शिवमारग में, जिमि माहि जिनेश्वर के लघु नन्दन || सत्यस्वरूप सदाजिन्हके, प्रकट्यौ अवदात मिथ्यात्व निकंदन |
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