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आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए इस लोभ को छोड़ना ही पड़गा। देखिये इस लोभ का पराक्रम | इसकी पूर्ति के लिये अनेक प्रकार के छल-कपटरूप माया को पोषण मिलता है। इसकी किंचित पूर्ति हो जाने पर मान को पोषण मिलता है। और इसकी पूर्ति में किंचित बाधा आ जान पर क्रोध को पोषण मिलता है। शेष तीनों कषायों को बल देने वाला यही तो है। क्रोध-कषाय तो स्थूल है, बाहर में प्रगट हो जाती है, परन्तु लोभ छिपा-छिपा अंतरंग में काम करता रहता है और शेष तीनों की डोर हिलाता रहता है। इसके जीवन पर ही सर्व कषायों का जीवन है और इसकी मृत्यु पर सबकी मृत्यु । यद्यपि सर्व कषायों का, सर्व दोषों का ही शोधन करना शौच है, तदपि सबका स्वामी होने के कारण कवल लाभ के शोधन को शौच कहा जा रहा है। हाथी क पैर में सबका पैर |
इसलिय, जैसे भी बने, गृहस्थी में रहते हुए भी इस लाभ से बचने का प्रयास करना चाहिये | जो ज्ञानी होते हैं, जिनका लोभ नष्ट हो गया है, वे ही सुखी हा पाते हैं। घर-गृहस्थी में रहनेवाले भी ऐस अनेक व्यक्ति होते हैं, जो इस लोभ के चक्कर में नहीं आये | रावण परस्त्री का लोलुपी था, परन्तु लक्ष्मण इसके विपरीत थे | उसी रावण की बहिन सूर्पनखा ने सारे-के-सार प्रयत्न कर लिये, लक्ष्मण को अनेक प्रकार से लोभ दिखाये, परन्तु उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि जिसे अपनी पत्नी स्वीकार कर चुका हूँ, उसके अलावा दूसरी स्त्रियाँ मेरे लिये माँ-बहिन क समान हैं | यह लक्ष्मण की निर्लोभतापूर्ण मनोवृत्ति थी।
सदासुख दास जी जयपुर में रहते थे। व किसी शासनाधीन विभाग में कार्य करते थे। वहाँ वर्षा कार्य करत रहे | एक बार सभी
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