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जाती हैं। लाभ की यह तासीर है कि जितना लाभ बढ़ता जाता है, उतना लोभ भी बढ़ता चला जाता है। लोभ के कारण ही संसार के सभी प्राणी दुःखी हैं।
मन का पेट बहुत बड़ा है, मन की भूख बहुत गहरी है। शरीर की भूख तो थोड़ी-सी है, पेट की भूख तो साधारण है, दो-चार रोटी से भरा जा सकता है, लेकिन मन? मन का जितना भी मिले, उतना थोड़ा है, सुमेरु पर्वत-सा ढेर लगा दो, तब भी थोड़ा है, तब भी मन तृप्त नहीं होगा। मन की आकांक्षायें अगणित होती हैं, अनन्त होती हैं | मनुष्य का मन बड़ा विचित्र है | आज तक किसी का भी मन तृप्त नहीं हुआ?
अकबर और बीरबल के जमाने की बात है। एक बार अकबर और बीरबल शाम को बाजार में घूम रहे थे। अचानक अकबर की नजर एक वणिक की दुकान पर गई। वह वणिक बहुत ही उदास और चिंतित नजर आ रहा था । अकबर ने बीरबल से पूछा-बीरबल ये वणिक इतना उदास क्यों है?
बीरबल ने उस वणिक को बुलाया और उदासी का कारण पूछा। तब बड़े विनम्र स्वर में वणिक बोला-जहाँपनाह! मैं एक साधारण व्यापारी हूँ, बदलते मौसम के साथ अपना व्यापार बदलता हूँ| इस वर्ष ठंड के मौसम में मैं अपनी सारी पूंजी लगाकर 500 कंबल खरीदकर लाया था, परन्तु मरे दुर्भाग्य से इस वर्ष ठंड कम पड़ी, इसलिये मेरा एक भी कंबल नहीं बिका | यह सुनकर अकबर का हृदय दया भाव से भर गया ।
दूसरे दिन अकबर ने अपनी राजसभा में कहा-कल जो भी मरी राजसभा में आयेगा, वह अपने साथ एक नया कंबल लेकर आयेगा।
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