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सुप्रसिद्ध है । इस कारण जो सुख को चाहने वाले हैं, उन्हें पाप के कार्यों को छोड़कर धर्म के कार्यों में लगना चाहिये । आप किसी से भी पूछ लो, क्यों भाई ! तुम मेरा यह पाप ले लोगे न? तो वह स्वीकार नहीं करेगा। पाप का नाम भी इतना अनिष्ट है कि लोग इतना कहने में भी भय खाते हैं कि अच्छा तुम यह काम करलो, पाप हमें लग जायेगा। हमें अत्यन्त दुर्लभता से यह मनुष्यपर्याय मिली है । इस समय कितना अच्छा अवसर है कि हम पाप को छोड़कर, धर्म का पालन कर आत्मा का कल्याण कर सकते हैं।
मनुष्य पर्याय की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। इसे प्राप्त कर हमारा मुख्य कर्तव्य आत्मा का कल्याण करना है, जो धर्म को धारण करने पर ही संभव है । जो व्यक्ति को दुःख से मुक्त कराकर मोक्ष के निराकुल अतीन्द्रिय सुख को प्राप्त करवा दे, उसे धर्म कहते हैं । इस धर्म के दशलक्षण कहे गये हैं- उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य । ये धर्म के दशलक्षण आत्मा के भावनात्मक परिवर्तन से उत्पन्न विशुद्ध परिणाम हैं, जो आत्मा को कर्मों के बन्ध से रोकने के कारण संवर के हेतु हैं । परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने लिखा है- यदि हम संवर तत्त्व को ठीक-ठीक अपनाना चाहते हैं तो हमें "स गुप्ति समिति धर्मानुप्रेक्षा परीषहजय चारित्रैः " रूपी हार पहनना चाहिये । गुप्ति, समिति, परीषहजय एवं चारित्र का वर्णन इस ग्रंथ के प्रथम भाग में किया जा चुका है । यहाँ धर्म के दस लक्षणों का वर्णन किया जा रहा है ।
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