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बालमुनि के इस रहस्यपूर्ण मधुर वार्तालाप को सुनकर सेठ के क्रोध का ज्वर उतर गया और मुनिराज के चरणों में गिरकर क्षमायाचना करने लगा। वास्तव में हम लोग बासा खा रहे हैं। मनुष्य - जैसे उत्तम तन को पाकर पशु के समान आचरण कर रहे हैं । स्व क्या है, पर क्या है, इसका भेदज्ञान अभी तक मुझे नहीं हुआ । इसलिये वास्तव में अभी मेरा जन्म ही नहीं हुआ । अब मेरा हृदय पश्चात्ताप से जल रहा है । आपके और बहू के ज्ञान ने मेरे ज्ञाननेत्र खोल दिये । वह बहू की बड़ी प्रशंसा करने लगा। मुनिराज ने कहा कि अभी भी समय है। जो हुआ, सो हुआ; अब धर्म को धारण कर बचे हुये क्षणों का सदुपयोग कर अपना कल्याण करो ।
जब से स्व-पर का भेदज्ञान है । तभी से जीवन में धर्म की शुरूआत मानना चाहिये । मैं "मैं" हूँ, मैं देहरूप नहीं, मैं मेरा हूँ, मेरे सिवाय बाहर में अन्यत्र मेरा कहीं कुछ नहीं । ऐसा भेदज्ञान ही हम, आपको शरण है। यहाँ जोड़े हुये समस्त समागम का फल तो अन्त में विघटन ही है । जैसे बच्चे लोग बरसात के दिनों में रेतीली जमीन पर पैर रखकर उस पर धूल डालकर घर बनाते हैं, जिसे घरधूला कहते हैं। वह बच्चों का घरघूला क्या है? थोड़ी देर में खेलकर वे बच्चे उसे मिटा देते हैं और अपने-अपने घर चल देते हैं । इतना श्रम करने से उन बच्चों को कुछ लाभ नहीं मिला। ऐसे ही मकान बनवाया, दुकान चलाई, अपना यश बढ़ाया, अन्त में फल क्या होगा? एक दिन सारा-का-सारा समागम वियुक्त हो जायेगा, मैदान साफ हो जायेगा। इस समागम के मोह में इस जीव को क्लेश ही मिलता है । फिर भी यह अज्ञानी प्राणी, मोही जीवां में जो स्वयं मूढ़ता के फंदे में फँसे हैं, अपना बड़प्पन चाहता है ।
यह मानव मूढ़ों की मूढ़ता में होड़ मचाये है । धन, वैभव आदि के सर्व समागमों में यह व्यामुग्ध होकर होड़ करता है । दो मित्र चले ।
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