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या धोखे में आना तो उस व्यक्ति के कर्मोदय के अधीन है, परन्तु मायाचार करने वाले ने अपने आपको ठग लिया है और मायाचार के फलस्वरूप नरक तिर्यंचादि दुर्गतियों में जाकर असहनीय दुःख उठाना पड़ेंगे। यह मायाचारी हमेशा आत्मवंचना ही कराती है ।
दुर्योधन ने पाण्डवों के प्रति मायाचारी करके उन्हें लाख के बने घर में भेज दिया था और एक लोभी ब्राह्मण को कुछ रुपये देकर उस मकान में आग लगवा दी थी । पाण्डव अपने पुण्य से महामंत्र के प्रभाव से बच निकले, परन्तु दुर्योधन की निन्दा आज तक हो रही है और वे सभी नरक दुःख उठा रहे हैं ।
मनुष्य मायाचार अनेकों कारणों से करता है । कभी अपने शत्रु से बदला लेने के लिये, कभी अपना बड़प्पन दिखाने के लिये, कभी दूसरे का धन विविध उपायों से छीनने के लिये और कभी वैभव वृद्धि के लिये मायाचार करता है। ये सभी जीव तिर्यंच गति की खोटी योनियों का कर्मास्रव करते हैं ।
आर्जव धर्म को प्राप्त करने की प्रथम शर्त है, अपने भीतर से समस्त जड़ता को, मन की सारी कुटिलता को, वक्रता को हम हटा दं, हमेशा-हमेशा के लिये दूर कर दें, सरल परिणामी बनें, भोले-भाले बच्चों के समान एकदम निष्कपट सरल बनें। यदि हम सरल होकर जिनवाणी का स्वाध्याय करेंगे, तो अवश्य ही तत्त्व ज्ञान प्राप्त कर दुःखों से मुक्त होकर सच्चे सुख को प्राप्त कर सकते हैं । दुःखां का मूल कारण तो हमारी अज्ञानता ही है ।
एक आदमी नींद में सो रहा है। सपने में देखता है कि उसके मकान में आग लग गई। आग की लपटें निरन्तर बढ़ती जा रही हैं । उसका कमरा पूरी तरह आग की चपेट में आ गया है। वह चीख रहा
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