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नहीं
(मतला) बनवाया। उस पर लखनवी नजाकत की बहुत बढ़िया नक्काशी थी । अम्माजी पान खाने की शौकीन थीं । उन्होंने उसमें से पान निकालकर खाया, लेकिन किसी ने उस पर ( मतले पर) ध्यान दिया। अब ये तो बड़ी मुश्किल हो गई । अपने पास इतना सुन्दर मतला है और किसी ने उस पर ध्यान ही नहीं दिया । किसी ने देखा तक नहीं, प्रशंसा तक नहीं की । अब दो तीन दिन तो उन्होंने बर्दाश्त किया, पर कोई देख तक नहीं रहा। फिर एक दिन हल्ला मचा। उस बूढ़ी अम्मा ने बाहर आकर हल्ला मचाया। आग लग गई - आग लग गई, बचाओ-बचाओ । अब सब लोग भागे-भागे उसके घर आये । देखा कि थोड़े-से कपड़ों में आग लगी थी, थोड़े-से कागज जल गये थे । पर अब आग बढ़ती ही जा रही थी, जल्दी-जल्दी पानी लाया गया। तभी बाजू से एक अम्मा आई और उन पानवाली अम्माजी के पास खड़ी हो गई । अब उन पानवाली अम्मा जी ने अपना पान का मतला निकाला और उसमें एक पान निकालकर खाया। उधर लोग आग बुझा रहे हैं और यहाँ अम्मा पान खा रहीं हैं । इसी से मालूम हो गया कि वे क्या चाहती हैं? पास में खड़ी दूसरी अम्मा जी बोलीं- अरे ! आपका मतला तो बड़ा सुन्दर है । कब लिया? हमने तो आज देखा ।
अम्मा जी बोलीं- ये अगर पहले पूछ लिया होता तो ये आग काहे को लगती ।
आजकल हम लोग दूसरों से प्रशंसा सुनने के मोहताज हो गये हैं? मेरे गुण जब तक दूसरे के द्वारा सम्मानित न हों, तब तक मानों वे मरे गुण ही नहीं हैं । मनुष्यपर्याय में मानकषाय मुख्यरूप से रहती है ।
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