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करेंगे? क्रोध को तो कड़वा जहर समझकर छोड़ सकते हैं, पर मान तो ऐसा मीठा जहर है कि इसे जितना अपनाते जाओ, उतना-उतना आनन्द आता है। इसलिये इस मान को क्रोध से अधिक खतरनाक माना जाता है | मान छोड़ने की ओर हमारा उपयोग ही नहीं रहता। वह छूटे तो कैसे छूट? भीतर में जो मानकषाय बैठी है, वह झुकने नहीं देती।
एक गाँव का मुखिया था। सरपंच था | एक बार उससे कोई गलती हो गई और उसे दंड सुनाया गया | समाज गलती सहन नहीं कर सकती। ऐसा कह दिया गया और कुछ लोगों ने इकट्ठे होकर उसके घर जाकर सारी बात कह दी। घर के भीतर उसने भी स्वीकार कर लिया कि गलती हो गई, मजबूरी थी | पर इतने से काम नहीं चलेगा। लागां ने कहा कि यही बात मंच पर आकर सभी के सामन कहना होगी कि मेरी गलती हो गई और मैं इसक लिये क्षमा चाहता हूँ | फिर दण्ड के रूप में एक रुपया दना होगा। एक रुपया कोई मायने नहीं रखता। वह व्यक्ति करोड़ रुपया देने के लिये तैयार हो गया, लेकिन कहने लगा कि मंच पर आकर क्षमा माँगना तो संभव नहीं हो सकेगा। मान खंडित हो जायेगा, प्रतिष्ठा में बट्टा लग जायेगा। आज तक जो सम्मान मिलता आया है वह चला जायेगा।
सभी जीवों की यही स्थिति है। पाप हो जाने पर, गलती हो जाने पर कोई अपनी गलती मानने को तैयार नहीं है, क्योंकि भीतर मानकषाय बैठा है, वह झुकने नहीं देता। भगवान महावीर स्वामी ने मान को हलाहल समझा और उसका परित्याग कर दिया, सदा के लिये छोड़ दिया, लेकिन जिसे महावीर स्वामी विष समझकर छोड़ गये, उसे हम अमृत समझकर पी रह हैं |
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