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सामायिक मैं शुद्ध चेतन, अचेतन से निराला, ऐसा सदैव कहता, समदृष्टि वाला | रे! देह नेह करना, अति दुःख पाना, छाड़ो उसे तुम, यही गुरु का बताना ।।
सत् चेतना हृदय में जब देख पाता, आत्मा सदैव, भगवान समान भाता । तू भी उसे भज जरा, तज चाह-दाह, क्यों व्यर्थ ही नित, व्यथा सहता अथाह ||
सल्लीन हों स्वपद में, सब सन्त साधु, शुद्धात्म के सुरस के, बन जायें स्वादु । वे अन्त में सुख अनन्त, नितान्त पावें,
सानन्द जीवन, शिवालय में बितायें ।।
(108 आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज) हे विशुद्धात्मन! स्व-से-स्व की चर्चा करना ही वास्तविक चर्चा है, जिसक माध्यम स आत्म-अर्चा होती है। इसी आत्म अर्चा एवं चर्चा के काल का नाम ही सामायिक है। इस काल को प्रमाद, आलस्य, निद्रा, तंद्रा में मत खो देना, क्योंकि यही एक अनुपम-अद्वितीय काल है, जिसमें स्वयं से मुलाकात होती है, यानी निज-से-निज की बात होती है। अतः इस समझो । "सम" यानि "समान भाव का होना", न राग, न द्वष | अर्थात् इनसे परे वीतराग प्रभु जैसे बन जाना या सभी प्राणियों के प्रति समभाव, सद्भाव, मैत्रीभाव रखना अथवा 'समय' में एकीभाव हो जाना | आत्मा में आत्मा का समावेश कर लेना व अपने में मिला लेना/लगा देना ही सामायिक है। दुनिया से मौन लकर निज से चर्चा करन का नाम सामायिक है।
(108 आचार्य श्री विशुद्धसागर जी महाराज)
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