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जाती रही, उनके नेत्र लाल हो गये, भौहें चढ़ गईं, क्रोध से शरीर काँपने लगा। उन्होंने क्रूर दृष्टि से द्वारिका की ओर देखा।
द्वीपायन मुनि को तप के प्रभाव से तेजस् ऋद्धि प्राप्त हो गई थी, अतः जैसे ही उन्होंने द्वारिका नगर की ओर क्रोधित हाकर दखा कि बाएँ कन्धे से सिन्दूर के रंग का प्रज्जवलित गाला निकला और उसने द्वारिका में चारों आर आग भड़का दी ।
उधर यदुकुमारों न घर जाकर द्वीपायन मुनि के आने तथा उन पर ईंट, पत्थर बरसाने की घटना सुनाई। इस दुर्घटना को सुनकर कृष्ण और बलभद्र बहुत घबड़ाये | उन्हें द्वारिका के भस्म हो जाने की आशंका होने लगी। उन्होंने भड़कती हुई आग को बुझाने का बहुत यत्न किया । समुद्र के जल से भी उसे शान्त करना चाहा, किन्तु वह जल तेल की तरह से आग को और भी अधिक भड़काने लगा | आग बुझाने क जब सब यत्न व्यर्थ हुए, तब वे दानों भाई भागकर द्वीपायन मुनि के पास गये और उनसे क्रोध शान्त करने तथा द्वारिका को भस्म होने स बचाने की प्रार्थना की, मरणोन्मुख द्वीपायन न अपने हाथ की दा उँगलियाँ उठाकर संकेत किया कि द्वारिका में से अब केवल दो ही व्यक्ति बच सकोगे।
तब दुःखी होकर कृष्ण व बलभद्र फिर दौड़ कर घर आये और अपने माता-पिता को उस धधकती हुई महाअग्निकाण्ड से बचाने के लिये उन्हें रथ में बिठाकर ले जाने लगे, तो रथ के पहिये पृथ्वी में अड़ गये, रथ जरा भी आगे न बढ़ सका। उधर उनके माता-पिता आग की लपटों में आ गये | तब हारकर भग्नहृदय होकर कृष्ण व बलभद्र रोते-बिलखते, द्वारिका का भस्म होत देखते हुए द्वारिका से बाहर चले गये। वन में जरतकुमार ने हिरण समझकर प्यास में लेटे
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