________________
दिन गिनते रहे और अपनी समझ के अनुसार बारह वर्ष पूरे हुए जानकर द्वारिका की ओर चल पड़े। अधिक मास ( मलमास, लोंद का महीना) का उनको ध्यान न रहा इस कारण वे बारह वर्ष से पहले ही द्वारिका की सीमा में आ गये,
कवि ने ठीक कहा है
-
-
सा सा सम्पद्मते बुद्धिः, सा गतिः सा च भावना | सहायास्तादृशाज्ञेया, यादृशी भवितव्यता । ।
यानी जैसी भवितव्यता (होनहार ) होती है, वैसी ही मनुष्य की विचारधारा बनती है, वैसी ही मति और भावना होती है तथा समस्त सहायक सामग्री भी वैसी ही आ मिलती है ।
उधर महाराज कृष्ण ने द्वारिका की समस्त शराब जो नगर के बाहर कुण्डों में फिकवा दी थी, कभी सूख गई, कभी जल वर्षा से फिर नशीली हो गई, उन कुण्डों में महुए के फल गिरते रहे जिससे कुण्डों का जल और अधिक मादक (नशीला ) बन गया ।
संयोग से उन ही दिनों द्वारिका के यदुवंशी राजकुमार वनक्रीड़ा के लिये द्वारिका के बाहर वन में घूमते-फिरते क्रीड़ा करते रहे । खेलते-कूदते उनको प्यास लगी, तब उन्होंने अपनी प्यास बुझाने के लिये उन कुण्डों का जल पी लिया । कुण्डों का जल शराब और महुओं के कारण नशीला हो गया था, अतः उस जल को पीकर वे तरुण राजकुमार नशे में झूमने लगे। उसी समय उनको द्वीपायन मुनि मिल गये । नशे के झोंके में उन राजकुमारों ने द्वीपायन पर, यह कहते हुए कि द्वारिका को जलानेवाला यह द्वीपायन आ गया, इसको मारकर यहाँ से भगा दो । ईंट, पत्थर, मिट्टी के ढेले फके, जिससे द्वीपायन मुनि का क्रोध भड़क उठा । द्वीपायन मुनि की क्षमा, शान्ति
112