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धर्म को जीवन में धारण करने के लिये आवश्यक है कि हम अपनी कषायों को धीरे-धीरे कम करते जायें। वास्तव में हमें कहीं बाहर से धर्म लाना नहीं हैं, बल्कि हमारे भीतर जो लोभादि कषायें हैं उनका हटाना है। जैसे-जैसे हम उनका हटाते जायेंगे, धर्म अपने आप हमारे भीतर प्रगट हाता जायेगा। इसीलिये बड़े वर्णी जी ने लिखा है-मूल में तो चारों कषायों पर विजय प्राप्त करना ही धर्म है |
कषाय की कणिका मात्र भी व्यक्ति का विनाश करने में सक्षम है | ये शुरू में बहुत छोटी लगती हैं, लेकिन बढ़ते-बढ़ते इतनी बढ़ जाती हैं, कि हमारे सारे जीवन को नष्ट कर देती हैं। अतः इनसे सदा सावधान रहना चाहिये ।
अणथावं वणथोवं अग्निथावं कषाय थोवं च ।
ण हु ये वीसियव्वं थोवं पि हु तं बहू होई ।। ऋण को थोड़ा, घाव को छोटा, आग को तनिक और कषाय को अल्प मानकर निश्चिन्त होकर नहीं बैठ जाना चाहिय, क्योंकि ये थोड़े-थोड़े भी बढ़कर बहुत हो जाते हैं | कषाय तो कषाय होती है | उसे कमजोर या थोड़ी समझकर कभी नजर-अंदाज नहीं करना चाहिये।
कभी उधारखाते को थोड़ा नहीं समझना। हम सोचते हैं कि थोड़ा-सा ही तो ऋण लिया है, लेकिन वह थोड़ा-सा ऋण बढ़ते-बढ़ते एक दिन इतना हो जाता है कि मूलधन नहीं चुक पाता, ब्याज चुकात-चुकाते पूरी जिन्दगी निकल जाती है। ऐसा है यह ऋण, एसी ही ये कषायें हैं। दिखता थोड़ा है कि जरा-सा तो गुस्सा किया है, अभी सम्भाल लूँगा; लेकिन नहीं, बढ़ता ही चला जाता है। घाव को कभी छोटा नहीं समझना | अगर थोड़ी भी असावधानी
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