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हैं तब निर्जरा है। जिस समय समस्त शुभ या अशुभ, प्रशस्त से प्रशस्ततर धर्मानुराग रूप बाह्य क्रिया, प्रवृत्ति, कार्य, कर्म न हो, उस अक्रिय अवस्था में निर्जरा कर मुक्ति होती है।
पश्चाताप से निर्जरा - जिस समय अपने पूर्व में बांधे कर्म, पूर्व में किए पापों की अन्तःकरण से, प्रथमतः शब्द से, फिर शब्दातीत हो, धिक्कारते हैं, पश्चाताप करते हैं, प्रतिक्रमण करते हैं, स्वयं ही स्वयं की, विकारी, पापी, दुष्ट, दुरात्मा, पापात्मा की आलोचना, निंदा करते हैं, सद्गुरु के समक्ष सर्व पापों विकारों-दोषों को खोल-खोलकर रखते हैं, तब सर्व पाप, अतिचार, दोष धुल जाते हैं, पाप गल जाते हैं। आत्मा का परिष्कार, परिशुद्धि, विशुद्धि होती है, वहां निर्जरा है। इसे प्रायश्चित नामक आभ्यांतर तप कहा है।
वैयावृत्य एवं परम विनय से निर्जरा-जब गुरु, परमगुरु, परमज्ञानी, ज्ञानी के समक्ष विनयवंत हो, उनकी शुद्ध आत्मा पर दृष्टि कर, स्वयं की शुद्ध आत्मा में रमणता हो, तब उस विनय से निर्जरा होती है। ज्ञानी, रुग्ण की सेवा वैयावृत्य करे,
में मल-मूत्र धोना फेंकना, मवाद साफ कर पट्टी करना आदि पर अहो ! इतनी पीड़ा होते भी ये कैसे आत्मध्यान में, समाधि में लीन रहते हैं, उनकी शुद्ध आत्मा से, स्वयं की शुद्ध आत्मा में रमणता से निर्जरा है।
(9) मोक्ष तत्व-परम गुरु परमात्मा तीर्थंकर स्वयं भाव मोक्ष में हैं। मात्र ज्ञाता-द्रष्टा भाव में, स्वरूपानंद में रमणता करने वाले परम वीतरागी परम शुद्ध उनकी वीतराग-वाणी को सद्गुरु से सुन-समझ पक्का किया कि मैं भी वैसा ही। मैं भी मोक्ष स्वरूपी हूं। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन स्वरूपी हूं। देहादि समस्त पर द्रव्य हैं। पर द्रव्य के माध्यम से होने वाले पर भाव, रागादि मैं नहीं, मेरा स्वभाव नहीं है। मैं ज्ञाता द्रष्टा-स्वरूप, सहज, शुद्ध आत्मा हूं। उस देहाध्यास के छूटते ही, देह का कर्तृत्व छूट जाता है, शुद्ध आत्मा प्रकट होती है, अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन प्रकट होता है। यही शुद्ध धर्म है, यही शुद्ध स्वभाव है, यही मोक्ष, यहीं मोक्ष है। संसार में, देह के साथ रहते हुए देहातीत, अतीन्द्रिय आनन्द में लीन। शुभ भाव से 'पुण्य, उससे देव और मनुष्य गति का सुख इन्द्रिय सुख । अशुभ भाव से पाप और उससे तिर्यंच गति और नरक गति का दुख, शरीर दुख । जब समस्त शुभ और अशुभ से, समस्त पुण्य और पाप से परे हो, तब आत्यांतिक आत्मा का सुख, आत्मानंद, अपूर्व आनन्द, परम सुख । वह मोक्ष है। जब विकारी भाव से, पर-पदार्थ के कारण, शरीरादि पर-द्रव्य, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म से होने वाले रागादि विकार भाव से
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