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________________ आमुख सर्वोच्च, स्वाभाविक और शाश्वत मूल्य अहिंसा को केन्द्र में रखकर अस्तित्व, उन्नति और लक्ष्य-प्राप्ति का आह्वानकर्ता जैन-दर्शन, वास्तव में, अद्वितीय, अनुकरणीय एवं सर्वकल्याणकारी मानव दर्शन है। जैन-दर्शन के विकास में तीर्थंकरों की सर्वप्रमुख भूमिका होने के बावजूद; दूसरे शब्दों में, परमात्मा स्वरूप अरिहंतों के विचारों एवं अनुकरणीय व्यवहारों की प्रधानता होने के साथ ही अरिहंतों, सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों, विदुषियों-विद्वानों का भी अविस्मरणीय योगदान रहा है। हजारों वर्षों की लम्बी समयावधि में, इस प्रकार, जैन-दर्शन निरन्तर विकसित होकर निखरता रहा है। मानव-जीवन को श्रेष्ठाचरणों-सौहार्द्र, सदभाव, सहयोग और एकता के आधार पर निर्देशित कर और इस प्रकार उसे सार्थक बनाने में अग्रणीय रहा है। अपने श्रेष्ठ मानवीय सिद्धान्तों और सत्याधारित व्यवहारों के आह्वान के बल पर यह आने वाले सभी कालों में महत्वपूर्ण, प्रासंगिक एवं अनुकरणीय रहेगा। इसमें किसी को भी कोई शंका नहीं रहनी चाहिए। अध्यात्म-दर्शन, तत्व-तर्क और धर्म-ज्ञान, सभी दृष्टिकोणों से जैन-विचार न केवल उत्कृष्ट है, अपितु अनेकान्तवाद-स्यादवाद जैसे इसके पहलू तो अपने आप में बेजोड़ हैं। व्यक्तिगत से स्थानीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक समस्याओं, संघर्षों-विवादों और मतभेदों को सुलझाने में मानव का श्रेष्ठतः मार्गदर्शन करने में पूर्णतः सक्षम भी हैं। वे सत्य की पराकाष्ठा है। आवश्यकता है तो, जैन-दर्शन को सरल, सहज और गाह्य भाव से, इसके मूल सिद्धान्तों-तत्वों के आधार पर जानने-समझने की है। इसी दृष्टि से प्रज्ञा महर्षि श्री उदय मुनि जी द्वारा तैयार किया गया यह लघु ग्रंथ वास्तव में न केवल जैन-दर्शन के मूलाधारों को सरल व सहज भाव से समझाने में सक्षम है, अपितु जैन-विचार के आमजन से अछूते पहलुओं का परिचय कराने में भी भलीभाँति सक्षम है। प्रज्ञा महर्षि श्री उदय मुनि जी ने जैन-दर्शन के समस्त मूलाधारों, मानव-जीवन में उनकी प्रासंगिकता और उनके बल पर जीवन को सफल-सार्थक करने की वास्तविकता प्रकट कर निस्सन्देह चिरस्मरणीय कार्य किया है। यह कार्य न केवल अपने उद्देश्य में सफल होगा, अपितु उन सभी को, जो बिना किसी पूर्वाग्रह के इसका अवलोकन करेगा, भरपूर लाभ देगा। मेरठ (उत्तर प्रदेश) दिनाँक : 31 अगस्त, 2012 ईस्वी। पद्मश्री डॉ० रवीन्द्र कुमार (पूर्व कुलपति, मेरठ विश्वविद्यालय) (4)
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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