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________________ वात्सल्य, बच्चों से स्नेह, मित्रों, जीवन-मित्रों से प्रेम-प्यार, बड़ों के प्रति सम्मान, आदर, आज्ञा पालन, सेवा आदि परिवार, समाज, देश के नियमों (मापदंडों) में, कानून में अच्छे माने जाते हैं। आचरणीय हैं। परन्तु इन सबके पीछे, स्वार्थ है, मोह है, बदले में, पहले मिले या भविष्य में मिलेंगे-उससे शरीर या इन्द्रिय सुख मिलेंगे, इसलिए अपने माने' उनसे ये सब भाव कर रहे हैं। यदि पृष्ठभूमि में स्वार्थ है, मोह है, इन्द्रिय-सुख की पूर्ति की चाह पड़ी है तो ये सब पाप हैं। पाप-भाव 18 प्रकार से होते हैं। प्राणातिपात (हिंसा), झूठ, चोरी, मैथुन-सेवन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान (दूसरे पर कलंक, आरोप लगाना), पैशुन्य (चुगली करना), पर-परिवाद (दूसरे की निंदा, आलोचना, बुराई करना, ईर्ष्या करना), रति, अरति, माया-मृषावाद (कपट सहित झूठ बोलना), मिथ्या दर्शन शल्य (या माया, निदान, मिथ्या-दर्शन शल्य), कुल 18 हैं। सप्त व्यसन-महापाप-नरक में धकेलने वाले-इनमें कुछ ऐसे हैं जो घोर हैं, तीव्र हैं, व्यसन बन जाते हैं, वे कुव्यसन कहलाते हैं। महापाप, महाबंध, तीव्रतम कर्म-बंध कराने वाले हैं। उनके सेवन से नरक के भयंकर-से-भयंकरतम दुख और बारम्बार अधोगतियों, चतुर्गति में अनन्त जन्म-मरण का दुख आता है, भोगना पड़ता है। परम ज्ञानी ने जाना-देखा है। मानो तो ठीक, न मानो, किसने देखा, पर-भव, किसने देखा-नरक, ऐसे नास्तिक बन, सेवन करते रहो तो ज्ञानी को कोई हानि नहीं, बचो तो ज्ञानी को कोई लाभ नहीं। अपने हिताहित का विवेक रखने वाला ही मनुष्य कहलाता है, अन्यथा तो मनुष्य के चोले में पशु या राक्षस है। ये कुव्यसन सात हैं-शिकार, मद्य (मादक पदार्थ पीना, खाना) मांस-भक्षण, पर-स्त्री-कन्या-भोग सेवन, वेश्यागमन, जुआ और महाचोरी। शिकार-पांच इन्द्रियों वाले प्राणियों, पशु-पक्षियों, वन्य-पशु-पक्षियों का शिकार अब अप्रचलित है, कानून से पूरा प्रतिबंधित है, रोक है, दंडनीय अपराध है। इन पशुओं से, शिकार करके, प्राप्त अंग-अवयवों का व्यापार, बैठक कक्ष में सजाना, उनसे बनी वस्तुओं का उपयोग करना, आज अप्रत्यक्ष शिकार है। हाथी-दांत की वस्तुएं, हिरन, सिंह, बाघ के मुंडक, चमड़ा, सुरक्षित-संरक्षित रखा पूरा शरीर, नाखून आदि वस्तुओं का उपयोग शिकार में मानें। मदिरा पान आदि-जिस खाद्य-पेय पदार्थ के खाने-पीने से मदहोश, बेहोश, मूर्छा, गहन-निद्रा, नशा आता है, वह मद्य-खान-पान कुव्यसन है। देशी, ठर्रा, 244
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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