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________________ सड़ता-गलता है, अपने वर्ण, गंध, रस, स्पर्श में निरन्तर बदलाव करता रहता है। मरता भी है। मिट्टी का है। पुद्गल है। इसे मैं अपना मान इसमें ममत्व, आसक्ति, इन्द्रियासक्ति करता , उसी से भारी कर्मबंध होता है। इसी से जुड़े सर्व परिजन, धन वैभव भी पराये हें, संयोगी हैं, मिलते-बिछुड़ते हैं, न जाने कौन कब बिछुड़ जाता है या न जाने कब मेरा आयुष्यकाल पूरा हो जाएगा, सब छूट जाते हैं, ये मात्र स्वप्न हैं। इन्द्रिय-विषयों की पूर्ति के लालच में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, स्वार्थवश हैं। इन्हें अपना मानना मिथ्या है। उसी से ममता मूर्च्छा, मोह, मोह राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसादि सभी पाप होते हैं। अतः कर्मबंध का मूल, कर्मरूपी पेड़ की जड़ मिथ्यात्व है। उसी कारण पूरा जीवन असंयम से बीतता है। उसी से कषाय भाव-क्रोधादि होते हैं। राग-द्वेष होते हैं। इन्द्रिय-विषयों में रति-अरति, आसक्ति-वितृष्णा होती है। हर्ष-शोक होते हैं। उसी से प्रमाद आता है। अपने-आपको जानना नहीं, परायों को अपना जानना, महा प्रमाद। इन्हीं भावों को, विकारों को हवा देने का कार्य करते हैं-मन, वचन और काया (या पांच इन्द्रियां), इन्हें शास्त्रीय भाषा में कहा- मिथ्यात्व, अविरति (रति या अरति), कषाय, प्रमाद और योग । कर्म का कर्त्ता मैं स्वयं हूं मानें, मैं शुद्ध आत्मा हूं। आत्मा का स्वभाव ज्ञाता-द्रष्टा । बाह्य में अनुकूल-प्रतिकूल में समभाव, आभ्यांतर में, अपने-आपको जानना-देखना। कोई राग-द्वेष की क्रिया-प्रतिक्रिया नहीं करना । प्रिय आया, प्रेमी या तो प्रीति, अप्रिय, शत्रु आया तो द्वेष । ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव को छोड़कर राग-द्वेषरूप क्रिया-प्रतिक्रिया, इसे कहा-विभाव, पर-पदार्थ के कारण होने वाला पर-भाव। कर्म के उदय में आने वाले अनुकूल-प्रतिकूल के प्रति राग-द्वेषादि भाव । ऐसे स्वभाव को छोड़कर विभाव, पर-भाव में जाने से कर्मबंध। यह तीसरा तत्व, बंध का स्वरूप कहा। इस कर्मबंध का कर्ता मैं स्वयं (आत्मा) हूं, ऐसा मानें। अन्य व्यक्ति, वस्तु, कर्म, कर्म-फल, जमाना, काल किसी को दोष नहीं देना। वे मात्र निमित्त कारण हैं, उनके अनुसार भाव, भाव-क्रिया करने वाला मैं स्वयं हूं, कर्म बंध का कारण मैं, ऐसा मानें। चाहूं तो बधूं, न चाहूं तो न बधूं। बाधूं तो चतुर्गति के जन्म-मरण का दुख, न बाधूं तो मुक्त। विकारी भावों से बंध- जब मैं विकार भाव में जाता हूं तब भाव-बंध कहलाता है। उन विकारों से कार्मण वर्गणा के बहुत या कम (न्यूनाधिक, भावानुसार) पुद्गल आकर, कर्मरूप, स्वयं अपनी शक्ति से वे परिणमित होकर, 38
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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