SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दुख, अनुकूल या प्रतिकूल, साताकारी या असाताकारी स्थिति-परिस्थितियां बनती हैं, मन-भाती (मनोनुकूल या मनोज्ञ) वस्तु मिलती है अमनोज्ञ मिलती है, उसका देने वाला, कोई सर्वशक्तिमान ईश्वर या उसका कोई प्रतिनिधि, या देवी-देवता नहीं है। सुख-दुख अपने-अपने होते हैं, स्वयं ही जीव निश्चित करता है और जैसा बीज वैसा फल मिलता है। बबूल का बीज बोयें तो कांटें मिलेंगे। आम की गुठली बोयें तो मीठे-रसीले आम मिलेंगे। हिंसा से मिथ्यादर्शन शल्य तक के 18 पाप बबूल के बीज और अन्न से नमस्कार पुण्य, आम की गुठली है। अभी मानो, अनुकूल, आज्ञाकारी परिजन मिले, सुख-सुविधा की प्रचुर सामग्री धन-वैभव मिले, पूर्व में, पूर्व के भव-भवों में, (आम की गुठली बोई थी) पुण्य बांध कर आए। यदि ये विपरीत मिलते हैं तो समझें (बबूल का बीज) 18 प्रकार के पाप का बंध करके आए। जब फल आता है तो अनुकूल फल को आप सौभाग्य और प्रतिकूल फल को दुर्भाग्य कहते हैं, वह भाग्य अन्य तय नहीं करता, स्वयं के कर्म बंध का ही फल है। बंध में मन, वचन, काया की भूमिका शून्य है मन, वचन, काया-तीनों पुदगल हैं। इनमें जानने-देखने-अनूभव करने की शक्ति नहीं है। इसलिए कर्म-बंध में इनकी भूमिका शून्य है। जब मैं भाव करता हूं तो उस विकारी भाव को पूरा करने हेतु ये तीनों मेरे भाव के अनुसार ही कार्य करते हैं। अतः जिनको कर्म बंध नहीं करना, वे विकारी भाव, कषाय भाव, क्रोधादि, मोहादि, रागादि नहीं करें। कर्म बंध का मूल मेरा ही विकारी भाव है। क्रोध का भाव आया, मन ने मनन किया, गाली दे रहा है, दे दो-चार थप्पड़। वचन से क्रुद्ध हुए, हाथ से थप्पड़, लात-घूसे दिए। मन-वचन-काया से जब कार्य हो रहा है, तब माने, मेरा क्रोध का भाव तो जुड़ा ही हुआ है। मन में आते ही दुगुना, वचन में आते ही वह चौगुना, हाथ-पैर आदि अंगों, इन्द्रियों से करते ही सोलह गुना, ऐसे ज्यामितीय गणित से कर्मबंध बढ़ता जाता है। सर्वाधिक बंध मुझे मेरी मिथ्या मान्यता या मिथ्यात्व से होता है। मिथ्या मान्यता क्या-यह मानना कि यह शरीर ही मैं हूं, शरीर मेरा है, परिजन, धन, वैभव मेरे हैं, परिवार का कार्य करना, फर्ज, कर्त्तव्य, दायित्व, उत्तरदायित्व, धर्म है। इन्द्रिय-विषयों में सुख है। यही सुख है, मुझे इसमें सुख लगता है। ये सब मिथ्या हैं। कैसे-शरीर कभी मेरा हुआ नहीं, होता नहीं, होगा नहीं। यह कभी मेरे अनुकूल चलता महसूस होता है। वस्तुतः यह अपने स्वभाव के अनुसार निरन्तर 374
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy