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अनाप-शनाप वस्तुओं, चल-अचल सम्पदा जोड़ेंगे, मनुष्य की इच्छा या तृष्णा असीम है प्राकृतिक संसाधन तो असीम नहीं हैं, यदि इनका अति दोहन करेंगे तो भयंकर आरंभ-समारंभ से भारी हिंसादि का पाप होगा और प्राकृतिक असन्तुलन, प्रकृति में प्रदूषण की भयंकरता से, प्रकृति के विनाश से मनुष्य का विनाश होगा। इसलिए महावीर कहते हैं-पृथ्वीकाय, जलकाय, (अपकाय), तेउकाय, वायुकाय
और वनस्पतिकाय भी जीव हैं, उन्हें दुखी मत करो, मत मारो। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और पेड़-पौधे, ये जिनके शरीर हैं, उनके साथ असंख्य से लगाकर अनन्त जीव हैं, उनकी हिंसा अनाप-शनाप होगी क्योंकि मनुष्य की आवश्यकताओं की कोई सीमा नहीं है फिर दो, तीन, चार, पांच इन्द्रियों वाले छोटे-बड़े जीव जन्तुओं, पशु-पक्षियों की भी भारी हिंसा होगी तब कर्म-बंध तो होगा ही। साथ में, सोचें, मनुष्य जिएगा कैसे? मानव-समाज का जीवन, पूरा इन्हीं पर निर्भर है, ये सभी प्रकृति के अंग हैं, मनुष्य भी उसी का अंग है। महावीर कहते हैं-इन सभी स्थावर काय और त्रसकाय के जीवों को भी जीने दो। इन्हें भी सुख चाहिए, दुख नहीं, ये भी जीना चाहते हैं, मरना नहीं।
गृहस्थ आवश्यकता सीमित रखें, आत्मानंद खोजें
अतः मनुष्य आजीविका इतनी ही, ऐसे कमाए कि अन्य जीवों की, प्रकृति की हानि न्यून से न्यूनतम हो। अभी एकदम उल्टा हो रहा है। फिर महावीर कहते हैं-मात्र इस मनुष्य को, मनुष्य भव में प्राप्त इन पांच इन्द्रियों से मिलने वाला सुख ही सुख नहीं उस-उस इन्द्रिय के माध्यम से, किसी व्यक्ति-वस्तु-परिस्थिति के कारण थोड़े से सुख और अधिकांशतः दुख का अनुभव जिस आत्मा को होता है, उस आत्मा के स्वयं के आनंद का अनुभव करो तो असीम, अनुपम, अपूर्व आनन्द में सराबोर हो परम सुख पाओ, कर्म-बंध भी नहीं और असीम सुख, वर्तमान में, यहां प्रत्येक आत्मा के पास विद्यमान है।
संयमी बन आत्मानंद में लीनता का लक्ष्यः इसी आधार पर जिस-जिसने जिन-जिन व्यक्तियों से जो-जो संबंध बनाए उनमें लिप्त हुए बिना, अनुरक्त-अनुरंजित-गृद्ध-आसक्त-अत्यन्त गृद्ध हुए बिना भी तो रहा जा सकता है। बंध का संबंध गृद्धता, आसक्ति, लिप्सा से है। अतः जिन्हें कर्म बंध नहीं करना, वे अनेक के साथ रहते हुए भी, कीचड़ में कमल के समान, अलिप्त, अगृद्ध, अनासक्त, निर्लिप्त, अभोगी, उदासीन भाव से रहो। जब सामर्थ्य
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