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ये प्रतिकूल मिलें तो द्वेष क्रोध-हिंसा कर फिर बंध
विपरीत लें-जो-जो इस शरीर को हानि पहुंचाता है, इन्द्रिय विषयों की पूर्ति में बाधक होता है, विषय-पूर्ति के लिए साधनों को हानि पहुंचाता है, पूर्ति हेतु उसकी आजीविका में हानि पहुंचाता है, बाधक बनता है, उन उन से द्वेष होता है। ऐसे राग द्वेष से कर्मबंध है। अज्ञानता के वश इन्हें अपना माना जाना, चाहे प्रियरूप या अप्रियरूप, मित्ररूप या शत्रुरूप माना, अतः वह अज्ञान कर्म बंध का मूल या मुख्य कारण हुआ। अज्ञानता क्या? अपने आप को, आत्मा को तो जाना-माना नहीं आत्मा से अत्यन्त प्रीति हुई नहीं, अपने-आप से, आत्मा से परिचय हुआ नहीं और जो इन इन्द्रियों से जानने-देखने में आ रहे हैं, उन व्यक्तियों को, इस शरीर को ही अपना जाना-माना, यही अनादि अज्ञान, अज्ञान से ही राग-द्वेषादि और वही मोह कर्मबंध, उसीसे भव-भ्रमण और उसी से अनन्त दुख
परिग्रह से बंध-फिर, शरीर सुख के लिए या कहें, इन्द्रिय-सुख के लिए कमाए जोड़े - एकत्र किए सारे साधन, सारी सुविधायें, समस्त धन-वैभव-पद-प्रतिष्ठादि हैं। न्यूनाधिक हों या कम या अधिक मूल्यवान हों, समस्त चल-अचल सम्पत्ति में भारी मोह-ममता - मूर्च्छा तृष्णा पड़ी है। यह कर्म बंध का कारण है।
व की हिंसा से बंध - इन सबको जुटाने, आजीविका कमाने हेतु, कोई भी कार्य-व्यवसाय हो उसमें, कितना ही बचें, जीवों की हिंसा - विराधना होती है। उन्हें दुख-क्लेश-मूर्च्छा-मृत्यु तक के कष्ट होते हैं। ऐसे आरम्भ समारम्भ-परिग्रह से बंध है। परिग्रह में ममता-मूर्च्छा होती है, उसे जोड़ने में, संचित करने, सहेजने, संभाल करने, सुरक्षित रखने में भी हिंसादि पाप होते हैं। वह भी बंध है।
क्या महावीर का धर्म-दर्शन मात्र सन्यासियों के लिए है?
परिचितों मित्रों-परिजनों से वात्सल्य स्नेह, प्रीति प्रेम, आदर-सम्मान सेवा भाव, कार्य बंध है। साधन-सुविधाएं, चल-अचल सम्पत्ति से भी बंध है। उस हेतु आजीविकोपार्जन करना, आरम्भ समारम्भ बंध है तब तो महावीर का धर्म-दर्शन मात्र सन्यासियों के लिए ही मानें, गृहस्थों संसारियों के लिए नहीं? यह प्रश्न चिन्ह खड़ा हुआ। मनुष्य हैं तो उनके संगठन, परिवार, समाज, संस्था, संघ, राजनैतिक-शासक-संघ आदि सभी व्यवस्थाएं तो होंगी। स्वीकार है। होंगी परंतु महावीर कहते हें कि मात्र अपने शरीर या इन्द्रिय सुख की पूर्ति ही लक्ष्य है तो
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