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________________ कैसे निकलूं? पूर्व में अज्ञानता में, मिथ्यात्व में पड़ा रहने से मिथ्या क्रोधादि कषाय (रागादि) कर लिए, अब ज्ञानी की वाणी समझ ली कि क्रोधादि मेरा स्वभाव नहीं है, मैं न करूं तो कर्म न आएं कर्म न हों, न रहें तो शरीरादि नहीं, शरीरादि नहीं तो रागादि नहीं, तब पुनः कर्म भी नहीं, तब मैं मुक्त, मोक्ष | जीव-अजीव का स्वरूप समझने से मोक्ष-यदि सत्पुरुष की सत्वाणी, सद्गुरू की गुरुवाणी, ज्ञानवार्ता सुन- पढ़-समझ कर जीव तत्व का, अजीव तत्व का, दोनों की पृथकता, भिन्नता का ज्ञान भान हो जाए तो अजीव के, अजीवरूप उक्त तीनों संयोगों से पूर्णतः परे अयोगी, शुद्ध, सिद्ध, परमात्मा । जीव- अजीव की भिन्नता न समझने से, मिथ्यात्व, अज्ञान में पड़े रहने से अनन्त कर्म और फल मिला-अनंत जन्म-मरण, उससे अनन्त दुख । इनकी भिन्नता समझ, अजीव से परे हो मात्र जीव स्वरूप हो जाऊं, ज्ञाता द्रष्टा भाव स्वरूप जीव, आत्मा हो जाऊं तो अनन्त जन्म-मरण के अनन्त दुख का आत्यांतिक (सदा सदा के लिये) अंत हो जाए। अतः महावीर के धर्म-दर्शन में यह समझ पक्की कर लेना, मोक्ष मार्ग की प्रथम सीढ़ी है, पूर्णत मोक्ष है। इतना इस समझ का महत्व है, इसलिए ज्ञानी गुरू इसे समझने-समझाने पर इतना जोर देते हैं। फिर एक विशेष बात, यह समझना, ऐसा हो जाना, यह भी मात्र मनुष्य भव में ही, मनुष्य भव से ही संभव है। अतः इस स्वर्णिम अवसर को चूकें नहीं, अत्यन्त त्वरा से, शीघ्रता से जीव और अजीव का, स्व-पर का स्वरूप समझ, भेद जान, भेद से परे अभेद, अखंड, अपूर्व स्व-स्वरूप को पा जाएं। उस स्व-स्वरूप का आनंद ही अपूर्व आनंद है। वह अपूर्व आनन्द का पिंड घन मैं स्वयं हूं, आत्मा । एकान्त में शान्त हो, उस अपूर्व शान्ति का अनुभव करें अपने आप में ठहर जाएं, सर्व अजीव से, अजीव पौदगलिक रागादि विकारों से परे अपने उस निर्विकारी-आत्म-तत्व को पहचानकर, पाने का पुरुषार्थ ही अपूर्व आनन्द का निरंतर प्रकट होते जाना है। लक्ष्य-पूर्णानन्द, आत्मानंद की पूर्णता । उसकी तुलना में पांचों इन्द्रियों के अनंत काल के समस्त भोगजन्य सुख, तुच्छ हैं। अनुभव करें, अनुभव आ जाए, तो मानें। न मानें, न जानें, तो पुनः पुनः बंध में। यहां दो तत्वों की कुछ व्याख्या पूरी हुई। न मानें तो तीसरा तत्व जानें- बंध (3) बंध-जीव मैं, अजीव में प्रमुख, , सीधा जुड़ा हुआ, यह शरीर । इन दोनों का परस्पर संबंध, संयोग ही बंध है। वस्तुतः आत्मा में बंधने, स्पर्श करने, दूसरे से जुड़ने का गुण ही नहीं है। शास्त्रकार आत्मा को अबद्ध-अस्पृष्ट बताते हैं। इसमें वर्ण-गंध-रस-स्पर्श गुण नहीं हैं । पुद्गल से पुद्गल तो बद्ध होता है परन्तु पुद्गल 32
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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