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________________ द्रव्यों के स्वरूप में जीवास्तिकाय शब्द है। जिसमें चेतन शक्ति है, उसे चैतन्य आत्मा कहा जिसके दो रूप और हैं-ज्ञान चेतना, दर्शन चेतना प्राण अर्थात् जो श्वाशोच्छ्वास ले। उसे प्राणी, प्राण धारक भी कहा। भूत, जो तीनों काल अस्तित्व में रहे। जीव, जो जीता है, प्राणों के आधार पर जीता है। उसमें उपयोग लक्षण है। सत्व, जो शुभ अशुभ भाव करने में समर्थ है जिसमें स्वयं को भी और अन्य जीवों, पदार्थों के जानने की शक्ति, ज्ञान है। जिसमें स्व-पर को देखने की शक्ति है, जिसमें सुख गुण हैं जिसमें वीर्य, आत्मशक्ति है। जिसमें सुख-दुख का अनुभव करने का गुण है, वह आत्मा है। गुण या । मूलतः मुख्यतः चार गुण गिनें ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य ये सभी अनन्त हैं। मानें कि मैं अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य स्वरूपी हूं। ये गुण या गुण समूह ही आत्मा है। ऐसी आत्मा किसी ने बनाई नहीं। यह किन्हीं संयोगी पदार्थ से नहीं बनी तो संयोगों के बिखरने से नाश भी नहीं होती। यह अनादि से है अर्थात् इसका आदि (प्रारंभ) नहीं है। यह अनन्त है, अर्थात् अनन्तकाल तक रहेगा। अतः मानें कि मैं अजन्मा, अजर, अमर हूं। अजन्मा अर्थात् जन्मा नहीं। अजर अर्थात् जरावस्था, बुढ़ापा नहीं होता। अमर अर्थात् मरता नहीं है अनादि अज्ञान से ढंका अनंत ज्ञान । किन्हीं संयोगी पदार्थों से संयोगों से शरीर बनता है उस शरीर की अवस्थाएं बदलती हैं, बालक, युवा, प्रौढ़, वृद्ध, वयोवृद्ध और मृत्यु जब तक यह मान्यता रहती है कि यह सब मुझमें (आत्मा में हो रहा, तब तक मिथ्यात्व है जिसका दुष्फल है, अनन्त कर्म, अनन्त जन्म-मरण, उसके अनन्त दुख । ऐसी मिथ्या मान्यता अनादि से चली आ रही है। इसका कारण भी अनादि का अज्ञान है। अनादि से मुझमें (आत्मा में) अनन्त ज्ञान भी, अनादि से अनन्त अज्ञान भी है। दोनों विपरीत, प्रकाश और अंधेरा एक साथ नहीं रहते पर मुझमें दोनों, अनन्त ज्ञान-प्रकाश और अनन्त अज्ञानान्धकार दोनों रहे । वस्तुतः वह ज्ञान गुण, मेरी ही अनादि भूल से अज्ञान से ढंक गया। परम ज्ञानी की वाणी से अपना मूल वास्तविक स्वरूप समझा। तब जाना कि मैं तो अनन्त ज्ञान का पुंज हूं, तब उस आवरण का हटाना प्रारंभ होता है, ज्ञान का प्रकाश बढ़ते-बढ़ते पूर्ण ज्ञान प्रकट हो, संपूर्ण अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है। , , उस अनादि अज्ञान से मैं मुझसे घनिष्टतः निरन्तर साथ जुड़ने वाले भिन्न-भिन्न शरीर रूप ही मैं हूं, यही जानता रहा, उसे अपना ही, वही मैं हूं ऐसा 27
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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