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________________ मादक मधु-रस-कण कण-कण को पिला रही मधु ऋतु - मधुबाला । डाल रही मुग्धा - मादकता, जन जन के मन पर वरमाला ॥ औ' अनङ्ग भी अङ्ग अङ्ग में, भर उमङ्ग छाया तन-मन में । मधु ऋतु का सुख मधुर मिलन में || अनायास नव राग छेड़ती, तरुण-तरुणियों की हृद्वीणा । और अपाठित भी पारंगत, होती मन की प्रकृति प्रवीणा || भामाशाह प्रिय की रूप सुधा की तृष्णा, जगती आतुर तृषित नयन में । मधु ऋतु का सुख मधुर मिलन में ।। ( सहसा ही भोमा नाइटों का आगमन, पति को सामने देख अलकासुंदरी का मौनावलम्बन ) भोमा - ( निकट आकर ) प्रिये ! मेरे आते ही तुम्हारा गान क्यों रुक गया ? क्या तुम्हारा संगीतामृत पाने का मैं अधिकारी नहीं हूं ? अलका०- - अवश्य हैं नाथ ! पर आपको अनुरंजित करने योग्य संगीत कला का ज्ञान मुझे नहीं । एकाकीपन के कष्ट से मुक्ति पाने के लिये ही मैं वीणा से क्रीड़ा करने लगी थी । मोमा - ( किंचित् विस्मय से ) तुम्हारी वीणा से क्रीड़ा तो स्वाभाविक है, पर एकाकीपन क्यों ? क्या मनो गृह में नहीं है ? १६
SR No.009392
Book TitleBhamashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherJain Pustak Bhavan
Publication Year1956
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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